Friday, December 30, 2016

मुक्त बाजार से मुक्ति-1

मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं कि आखिर हमें निरंतर गुलामी की ओर ले जा रही इस अर्थव्यवस्था का समाधान क्या है?
जवाब सीधा है लेकिन आसान नहीं है.
जब पूरे विश्व में धनिक वर्ग सरकारों पर हावी हो और उसी के चंदे से लोकतंत्र में चुनाव होते हों तो आप कैसे परिवर्तन की उम्मीद कर सकते हैं? कोई भी राजनितिक दल आये या जाए इससे सरकार की मूल नीतियों में कहीं कोई फर्क नहीं पड़ने वाला--- वे सदैव व्यापारी वर्ग के ही पक्ष में रहेंगी और उनका औचित्य यह कह कर ठहराया जाता रहेगा कि उद्योग व्यापार बढेगा तो नौकरिया बढेंगी और आपको रोजगार मिलेगा. चाहे इस चक्र में सीमित धरती के लगातार घटते जा रहे प्राकृतिक संसाधनो का कितना भी निर्दयी दोहन हो और लोगों की आजादी किसी भी हद तक गिरवी होती जाए.
वर्तमान व्यवस्था लोकतंत्र और आजादी का स्वांग भरने वाली, अधिकारों के सम्पूर्ण केन्द्रीकरण के लिए काम कर रही व्यवस्था है, और मजे की बात यह है कि इसका विरोध कर रहे संगठन भी केंद्रीकृत संरचना वाले हैं.
ऐसे में विरोध का व्याकरण ही बदलना होगा, छोटे-छोटे स्वायत्त, आत्मनिर्भर और स्थानीय संगठन ही कुछ कर सकते हैं. जितनी ज्यादा ऐसे संगठनों की तदाद बढेगी विरोध कारगर और मजबूत होगा.
ग्लोबलायिजेशन का प्रत्युत्तर लोकलाइजेशन ही है, समृद्धि और खुशहाली का वही वायस बनेगा.
या तो इस ओर प्रयास किये जायें या फिर इंतज़ार किया जाये कि तीव्रतर होता जा रहा मुद्रा-प्रवाह और चुकते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों का यह चक्र अपने फूलने, फैलने और फटने के क्रम में, अगले तीस चालीस सालों में कभी अंतिम बार फटे और फिर इसे फुलाने के लिए न सरकार के पास पैसा हो और न धरती के पास संसाधन---जिससे ये खुद अपनी मौत मर जाए.
जैसे कभी रोमन सभ्यता का अंत हुआ था. वैसे रोमन सभ्यता के अंत के समय जो लक्षण प्रकट हुए थे, वे सभी आज प्रचुर मात्र में दिख भी रहे हैं .
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यहाँ से हम “मुक्त बाजार से मुक्ति” श्रृंखला शुरु कर रहे हैं, इसे केवल पूर्वपीठिका समझें !

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