Sunday, March 5, 2017

बैंकिंग का उदय: दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक घोटाले की कहानी !

सौ लुहार की, एक सुनार की 

दरअसल अर्थव्यवस्था धनबल से नहीं, ऋण बल से चलती है. ऋण ही मुद्रा के भी उद्भव, चलन और विकास का आधार है. वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय के दौरान, किसी भी कारण से बदले में बराबर मूल्य की वस्तु न उपलब्ध करा पाने से ऋण की अवधारणा का जन्म हुआ. जाहिर है, मुद्रा के न होने पर सभी वस्तुओं और सेवाओं का बदला किन्हीं और वस्तुओं और सेवाओं से चुकाया जाता था और उनके परस्पर मूल्य, एक दूसरे के सापेक्ष, समाज में उनकी तात्कालिक आवश्यकता और उपलब्धि के आधार पर तय होते थे, सर्वमान्य होते थे, और इनका  हिसाब किताब भी याददाश्त के आधार पर जबानी तौर पर रखा जाता था.

पिछले लेख  से आपको याद होगा कि कैसे एक ऐसे ही समाज में  एक घुड़सवार ने घुसपैठ कर ली और अपनी चालबाजी से, लोगों को गुलाम और कर्जदार बनाते हुए, अपना साम्राज्य कायम कर लिया था. उसके बाद समाज में स्वतंत्र मानवीय गतिविधियों पर नियंत्रण होने लगा था, मनुष्य कम होने लगे थे, मजदूर बढ़ने लगे थे, मुद्रा के संग्रह की भी होड़ लगने लगी थी क्योंकि हर किसी को साल के अंत में,  ली हुयी मुद्रा से अधिक मुद्रा लौटानी थी. जाहिर है इसको लेकर लोगों में असुरक्षा भी पनपने लगी थी.  इसी वजह से, लेन-देन में उत्पन्न हुए  कर्ज के निपटान और सुरक्षा तथा समृद्धि पाने के लिए प्रतिस्पर्धा और लड़ाईयां भी शुरू हो चुकी थीं. मुद्रा के बदले श्रम, वस्तुओं और सुविधाओं की बिक्री के आरम्भ के साथ अर्थव्यवस्था का जन्म हो चुका था और ऋण उसकी मुख्य चालक शक्ति के रूप में अपने को जनमानस में स्थापित कर चुका था

इस तरह जब विनिमय में सुविधा के बहाने या फिर  सच कहिये तो विनिमय से उत्पन्न कर्ज को पाटने-पटाने के लिए मुद्रा का प्रयोग चल पड़ा तो तरह-तरह की मुद्रा बनने लगी. देखा देखी   अधिनायकों और शासकों द्वारा  हर उस चीज को मुद्रा की प्रयोग करने की कोशिश की गयी  जिस  पर लोगों का विश्वास जमता दिखाई देता कि  उसके बदले बाद में जीवनोपयोगी वस्तुयेन हासिल की जा सकती हैं. आखिरकार राज्य के हस्तक्षेप और सार्वजनिक सुविधा, विश्वास और सहमति से बात मूल्यवान  धातुओं जैसे सोना और चांदी पर आकर ठहर गयी.  हमारी दूसरी कहानी यहीं से शुरू होती है--एक सुनार की कहानी, कि कैसे पारंपरिक कहावत के उलट एक सुनार सौ लुहारों पर भारी पड़ा और यही नहीं बल्कि उत्पादन और विनिमय के सभी प्रचलित समीकरणों को झुठलाते हुए उनके श्रम, उत्पादन और जीवन को अपने कब्जे में कर बैठा. सुनार का यह कब्जा आज भी जमा हुआ है, उसे कोई भी विचारधारा, कोई भी आन्दोलन या क्रांति डिगा नहीं सकी और आज तो वह व्यापारों पर ही नहीं सरकारों पर भी हावी है.

000

तो हुआ यों कि उसी दुनिया में एक सुनार रहता था जो एक निश्चित नाप और शुद्धता के सोने के सिक्के ढालता था और वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने के बदले उन्हें लोगों में चलाता था. उसके पास सोना रखने की एक बड़ी तिजोरी भी थी. अब चूँकि समाज में अधिक मुद्रा संग्रह करने की होड़ लगी ही रहती थी, नतीजतन चोरी जैसे अपराध भी होने लगे थे. इसलिए जिन्होंने भी अधिक मुद्राएं संग्रह कर ली थीं उनके सामने उन्हें सुरक्षित रखने का प्रश्न भी आ खड़ा हुआ था. ऐसे ही कुछ लोगों ने से सुनार के सामने प्रस्ताव रखा कि  वह उनकी संग्रह की हुई मुद्राएं अपने पास जमा कर ले और जब जरूरत उन्हें होगी उसे वे वापस ले जायेंगे. सुनार ने  यह सेवा देना स्वीकार किया और बदले में मामूली किराये की मांग की  जिसे लोगों ने भी स्वीकार कर लिया और यह परिपाटी चल पड़ी. धीरे-धीरे अधिक से अधिक लोग सुनार पर विश्वास करने लग गए और उसी अनुपात में  उसके पास अपनी मुद्राएं सुरक्षित रखने लग गए. वह जमा की गयी सोने की मुद्राओं के बदले उन्हें रसीदें दे देता जिसे बाद में दिखाकर वे अपना सोना वापस पा सकते थे. सुनार इस प्रकार सभ्यता का पहला बैंकर बन गया और उसकी तिजोरी सभ्यता का पहला बैंक.

कुछ दिन इस प्रकार चलता रहा और उसकी तिजोरी भरती गयी और उसी के साथ साथ वह अधिक से अधिक लोगों का विश्वास जीतता चला गया. जब यह सब चल ही रहा था उसी दौरान  सुनार ने कुछ बातें  नोट की :-
१. लोगों की जमा दर में लगातार बढ़ोत्तरी हुयी जबकि सोने की निकासी की दर लगातार घटी.   
२. कुछ लोग सोना वापस निकलने के लिए आये लेकिन सभी लोग एक साथ कभी भी निकासी के लिए नहीं आये.
जब उसने गौर किया तो पाया कि बाहर बाजार में लोग असली सोने के सिक्कों के बदले उसकी दी हुयी रसीदें ही वस्तुएं खरीदने के लिए इस्तेमाल करने लग गये थे,  और लेने वाले बेहिचक उन्हें ले भी रहे  थे क्योंकि उन्हें पता था कि जब वे चाहेंगे सुनार के पास जाकर रसीदों के बदले ये सिक्के तो उन्हें मिल ही जायेंगे. और यहीं नहीं कागज की रसीदें लाने, ले जाने और रखने में सोने के सिक्कों की अपेक्षा कम वजनी और सुविधाजनक भी थीं.

इसी बीच लोगों में कर्ज बढ़ने लगा था. यह कर्ज वस्तु या सेवाओं के विनिमय से उत्पन्न कर्ज (जिसे आज हम बिल कहते हैं) न होकर के लेन देन में निपटान में देरी की वजह से लागू ब्याज की वजह से था. ब्याज की अवधारणा अब सर्वव्यापी हो चुकी थी, और अपनी स्वतंत्रता और संपत्ति खो चुके वर्गों में कर्ज पहले आवश्यकता और बाद में फैशन भी बन गया था.

अब सुनार ने इन स्थितियों का फायदा उठाने की योजना बनायीं. उसने अपने सोने के सिक्के बिलकुल पिछली कहानी के घुड़सवार की तरह ब्याज पर उधार देने शुरू कर दिए, लेकिन कुछ समय बाद उसने पाया कि लोग कागज की रसीदों को इस्तेमाल करने के इतने आदी  हो चुके हैं कि वे सोने के सिक्के लेने की बजाय  उससे कहते कि  “भाई हमें तो सिर्फ रसीद लिख कर दे दो उसी से हमारा काम चल जायेगा.” फिर सुनार से रसीदें ही देनी शुरू कर दीं और यहीं से उसे एक और बात और सूझी. चूँकि अब लोगों को सोने के सिक्के नहीं सिर्फ रसीदें ही चाहिए थीं तो वह कितनी भी रसीदें लिख कर दे सकता था ! यहाँ तक कि उसके पास लोगों का जो सोना जमा था उसके बदले भी, (भले ही उन पर जमा कर्ताओं को वह पहले ही रसीदें दे चुका हो) और लोगों को यह कभी पता नहीं चल सकता था क्योंकि वे कभी भी एक साथ अपना सोना वापस लेने नहीं आने वाले थे; जिसकी मुख्या वजह थी की अब उन्हें सोने के सिक्कों की जरुरत भी नहीं रह गयी थी और उनका काम रसीदों से चल रहा था.  

अब सुनार अंधाधुंध कर्ज बांटने लगा,  उस पर ब्याज कमाने लगा और पहले से खूब अमीर हो गया. लोगों ने जब उसकी बढ़ती अमीरी देखी तो उन्हें शंका हुयी कि जरूर यह आदमी हमारा सोना खर्च कर अपने लिए ऐशोआराम जुटा रहा है और वे सब उसके पास पहुंचे और अपना-अपना सोना देखने की मांग की. इस पर सुनार पहले तो सकपकाया लेकिन फिर उसने अपनी तिजोरी खोल कर दिखा दी. लोगों ने पाया कि उनका सारा सोना वहां सुरक्षित था, क्योंकि कर्ज पर तो रसीदें ही दी गयी थीं, सोने के सिक्के नहीं.  इससे उनका विश्वास सुनार पर और मजबूत हो गया, क्योंकि यह दरियाफ्त करने का साधन उनके पास नहीं था कि सुनार के पास असल में कुल कितना सोना जमा है  और वह कितनी रसीदें लोगों को दे चुका है. लेकिन यहाँ लोगों ने अपनी समझ के हिसाब से चालाकी दिखाते हुए उससे मांग की कि बेशक उनका सोना सुरक्षित है और वे उसे वापस भी नहीं चाहते लेकिन आखिरकार सुनार उन्हीं जमा सोने के सिक्कों के बदले ही तो अमीर होने का चक्कर चलाये हुए है, इसलिए उन्हें भी इस आमदनी में हिस्सा चाहिए. जाहिर हैं की अब तक जनमानस में मुद्रा, ब्याज और मुनाफे की अवधारणा भली प्रकार विकसित हो चुकी थी.      

सुनार ने ब्याज की कमाई में हिस्सा देना स्वीकार कर लिया, और जितना ब्याज वह लेता था उससे कम करके लोगों को देना मंजूर कर लिया; और यह लोगों को जायज भी लगा और उन्होंने सहमति भी दे दी.  इस तरह से एक बैंकिंग व्यवस्था का सूत्रपात हो गया, और सुनार को और अधिक खुल कर खेलने का मौका मिला. 

इसमें मार्के की बात यह थी कि उसको ब्याज देना तो केवल जमा सोने पर ही पड़ता था लेकिन वह कर्ज में कितनी भी रसीदें काट सकता था क्योंकि उसको रोकने वाला तो कोई था ही नहीं! बस इसी बात का फायदा उठा कर उसने और जोर शोर से कर्ज बांटने शुरू किये क्योंकि लोगों के बीच बढती लालसा और लालच के अलावा सरल गणित के हिसाब से भी वस्तुओं के मुकाबले मुद्रा की कमी सदैव बनी ही रहती और वे रोज रोज कर्ज की मांग करते ही करते. इस तरह कर्ज बढ़ता ही गया, और इसको तरक्की समझा जाने लगा. सुनार का बैंक खूब फूलने और फैलने लगा, सुनार की इजारेदारी समाज के हर क्षेत्र में कायम हो गयी.

लेकिन असल जमा धन और मुद्रा की पुर्जेबाजी में झोल तो था ही और पोल कभी न कभी तो खुलनी ही थी सो खुली. सुनार की अंधाधुंध बढती अमीरी फिर लोगों से हजम नहीं हुयी और वे फिर सुनार के पास पहुंचे और इस बार अपने सोने की मांग की. सामान्य लोगों में कुछ खासे अमीर भी शामिल थे जिन्होंने बहुत बड़ी बड़ी राशियाँ जमा करायी थीं. इस बार सुनार की बिलकुल नहीं चली और उसके पास जो सोना निकला वह उसके द्वारा दी गयी रसीदों का दसवां हिस्सा भी न था. नतीजा यह हुआ की सुनार दिवालिया हो गया.

लेकिन यह इस कहानी का क्लाइमेक्स नहीं है..... असल पिक्चर अभी भी बाकी है...
लेकिन इस बीच लोगों ने बकौल ग़ालिब “कर्ज की मय” पीनी शुरू कर दी थी और उसके नशे में झूमने लगे थे. मतलब कि तकनीक का विस्तार होने लगा था, व्यापार फैलने लगा था. चीन से फारस और रोम तक. उसके बाद युरोप के लोग तरह तरह के समुद्री अभियान में संलग्न हो दुनिया के दूसरे छोरों तक कूच करने लगे थे, वास्तविक उपलब्ध धन के मुकाबले फर्जी करेंसी पर फैलती हुयी  अर्थव्यवस्था का जोर हो चला था और धन के बदले “विश्वास” और “वायदा” नामक तत्वों के बूते बड़े-बड़े आर्थिक खेल होने लगे थे. ऐसे माहौल में जब बहुतायत लोग एक दूसरे से लेन देन के वायदे में फंसे हुए हों और उन्होंने बड़े बड़े काम इसी बूते पर ठान रखे हों तो  व्यवस्था कितनी भी फर्जी हो उससे छुटकारा असंभव होता है.

और हुआ भी यही. एक सुनार दिवालिया जरुर हुआ लेकिन सभी सुनार नहीं हुए. जाहिर है कि इस दुनिया में अकेला वही तो नहीं था और इसकी देखा देखी औरों ने भी यह रास्ता अपनी अपनी बस्ती या शहर में अपनाया था और अमीर बन गए थे. पर हाँ, तो इतना जरूर हुआ कि सुनार के दिवालिया होते ही राजा भी चेत गया और उसने एक आपातकालीन सभा बुलाई. बहुत विचार विमर्श के बाद यही नतीजा निकला कि सुनारों के फैलाये इस जाल से निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है तो क्यों न इस पर्चीबाजी को एक ही व्यवस्था बना दिया  जाए और इसे अर्थव्यवस्था के नाम से जाना जाए !  तय किया गया कि सुनारों को जमा सोने से एक निश्चित अनुपात में ही बढ़ कर रसीदें काटने की अनुमति होगी और उन्हें इस बारे में राज्य को बताना भी होगा. तब से यह व्यवस्था कानूनी जमा पहन कर मान्य हो गयी और सुनारों की कमाई से  राजा को भी टैक्स  के रूप में एक हिस्सा दिया जाने लगा.

इस तरह बैंक नामक संस्था का उदय हुआ और वे वास्तविक वस्तुओं और धन के मुकाबिल  उधार, वायदा, विश्वास जैसे तत्वों से बनी अर्थव्यवस्था के प्रमुख वाहक बन कर खड़े हो सके. अब आगे की बात ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर करेंगे और आपको बताएँगे कि कैसे व्यापारी वर्ग बाकायदा गुट बनाकर राज्य पर हावी हुआ और विश्व के प्रमुख धनिकों ने सरकारों को अपने कब्जे में ले लिया जैसा आज हम अपनी खुली आँखों से देख रहे हैं.