Saturday, December 10, 2016

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--4: सोवियत रूस का टूटना

थैचर और रीगन का अभियान रंग ला रहा था पूंजीपति सरकारी छूट और निजीकरण की नयी आंधी से फल फूल रहे थे और उनकी समृद्धि के ढोल संचार माध्यमों के द्वारा जोर जोर से पीटे जा रहे थे। नतीजतन आर्थिक जगत में आ रही इस थोथी चमक से दुनिया प्रभावित होने लगी थी। आम जनता में धारणा बन रही थी कि शायद यह सम्पन्नता का नया दौर है जिसमें सब बल्ले बल्ले होगा। अमेरिका और यूरोप के साथ तीसरी दुनिया का मध्य वर्ग भी इस चमक में खो कर उम्मीद कर रहा था कि मुक्त बाजारीकरण से समृद्धि और उसके साथ सुख उसके द्वार पर दस्तक देगा।
इस सबके बीच दुनिया के मध्यवर्ग की सोच में एक तात्विक बदलाव आया और वह यह कि उसकी सहानुभूति जो पहले निम्न वर्ग की ओर रहती थी, अब बढ़ती आकाँक्षाओं के दबाब उच्च वर्ग की ओर मुड़ गयी। किफ़ायत और बचत पर आधारित जीवन मूल्य बदल कर अधिक खर्च और उपभोग की तरफ मुड़ने लग गए।
इस बदलाव का असर रूस पर भी पड़ा और वहां कई दशकों से आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे पर अतिनियंत्रण भोगती जनता के बीच से भी जनतांत्रिक व्यवस्था की आवाजें उठने लगी। इसे पहचानते हुए उस समय रूस के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचोव ने "ग्लासनोस्त" और "पेरेस्त्रोइका" का आह्वान किया; जब कि उनके पहले उठने वाली जनतंत्र की मांगों को सेना द्वारा कुचल दिया जाता था। गोर्वाचोव रूस की अक्टूबर क्रांति के बाद पैदा होने वाले पहले रूसी राष्ट्रपति थे और उनकी इस नयी सोच का कारण भी शायद यही था। उन्होंने समाजवादी जनतंत्र वाला बीच का रास्ता अपनाना चाहा जिसका लक्ष्य राजनैतिक आर्थिक गतिविधियों पर कठोर नियंत्रण की बजाय उन्हें नियंत्रित छूट देते हुए एक ऐसी व्यवस्था कायम करना था जिसमे आम जनता की भागीदारी हो।
अब गोर्वाचोव की इस नीति में पश्चिमी देशों के नेताओं को नयी सम्भावनाये नजर आयीं। थैचर ने उन्हें अत्यधिक साहसी बताया। यही वह समय था कम्युनिजम के प्रतीक एक एक करके ढह रहे थे अथवा कमजोर पड़ रहे थे। हंगरी, पोलैंड और पूर्वी जर्मनी में अधिनायक वादी वामपंथ को चुनौतियाँ मिल रही थीं। बर्लिन की दीवार भी इसी बीच गिरा दी गयी जिसने जर्मनी को दो बंट रखा था। जाहिर है फ्रीडमन और शिकागो स्कूल के गिद्धों के लिए अब नए भोज्य क्षेत्र उपलब्ध हो रहे थे। इसी बीच लन्दन में हो रहे जी-७ देशों के सम्मलेन में आमंत्रित गोर्वाचोव को यह स्पष्ट रूप से बता दिया गया की रोस में कोई भी बाहरी निवेश तभी संभव होगा जब वे वहां पूंजीपतियों के आजमूदा "झटका सिद्धांत" को अपनाने के लिए तैयार होंगे। यह गोर्वाचोव के लिए असमंजस की स्थिति थी लेकिन पूँजी के गिद्ध रूस की संभावनाएं सूंघ चुके थे अतः उन्होंने उनके आतंरिक प्रतिद्वंदियों (विद्रोहियों) की ओर देखना शुरू किया तो उन्हें सबसे पहले बोरिस येल्तसिन नजर आये।
गोर्वाचोव के शुरुआती दिनों से ही उनपर सोवियत अर्थव्यवस्था को सुधारने की जिम्मेदारी आन पड़ी थी। बोरिस येल्तसिन उनके प्रिय थे और इसी लिए उन्हें नयी पदोन्नतियां और जिम्मेदारिया मिलती रहीं लेकिन अक्टूबर १९८७ में दोनों के बीच खटास पैदा हो गयी जब येल्तसिन ने मामूली से आतंरिक मत भेद पर पोलित ब्यूरो से अपना स्तीफा दे दिया। यह अभूतपूर्व घटना इस मायने में थी की तब तक किसी भी पोलित ब्यूरो सदस्य ने स्वेच्छा कभी पोलित ब्यूरो नहीं. छोड़ा था। इधर यह उठापटक जारी थी और उधर येल्तसिन अपने को मॉस्को की जनता में लोकप्रिय बना बनाते जा रहे थे। वे आफिस आने जाने के लिए साधारण बसों का प्रयोग करते और रोजमर्रा की चीजों के बढ़ते दामों पर सार्वजानिक विरोध जताते। गोर्वाचोव द्वारा लगातार डेमोट (demote) किया जाने के बाद वे स्थनीय चुनाव जीतते रहे नतीजतन केंद्रीय सत्ता की ओर उनके कदम बढ़ते रहे। साथ ही उन्होंने मौजूदा केंद्रीय सरकार की खुली आलोचना भी जारी रखी।
इसके बाद १८ से २१ अगस्त १९९१ बीच तीन दिनों में जो हुआ वह और भी अभूतपूर्व था, बिलकुल एक नाटक की शैली में---- एक झटका बड़े जोर का लेकिंन धीरे से और कहीं अधिक बारीकी से दिया हुआ।
यही झटकेदार घटनाक्रम सोवियत रूस के टूटने और पूँजी की बेरोकटोक घुसपैठ को संभव बनाने वाला साबित हुआ। गोर्वाचोव के विरुद्ध "पेरेस्त्रोइका" विरोधियों ने सशस्त्र तख्ता पलट की कोशिश की और गोर्वाचोव को नजर बंद कर लिया। कुछ घंटों की गोली बारी और संघर्ष के बाद तख्ता पलट करने वाले बिखर गए बिना किसी जवाबी हिंसक कार्यवाही के।जिस सैन्य टुकड़ी और कम्युनिस्ट पार्टी के कट्टरों ने आर्थिक आर्थिक सुधारों के विरोध में यह सब किया था वे आश्चर्यजनक रूप से रुसी संसद के भीतर नहीं घुसे। इसके बाद येल्तसिन तख्ता पलट करने वालों के मुकाबले में आ गए और उन्होंने रुसी संसद के पास खड़े एक टैंक पर चढ़ कर जोरदार भाषण दिया।.. इतने नाटक के बाद गोर्वचोव को नजरबंदी से छुड़ा लिया गया लेकिन उनकी राजनैतिक शक्ति और समर्थन बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था ।अब येल्तसिन सोवियत जनता के हीरो बन गए। इसके बाद १७ दिसम्बर १९९१ को गोर्वचोव और येल्तसिन के बीच मीटिंग हुयी और सोवियत यूनियन को समाप्त करने का निर्णय लिया गया।
आम सोवियत जनता के लिए यह बहुत बड़ा और बहुत जोर का झटका था। अब रशियन फेडरेशन की आर्थिक नीतियां बनाने का जिम्मा येल्तसिन का था।
यह शक्ति मिलता ही येल्तसिन ने इतने धुआंधार ढंग से आर्थिक सुधारों को लागू करने का कार्यक्रम शुरू कर दिया जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था जब कि गोर्वाचोव के चलते और उनसे खटपट के बावजूद यही येल्तसिन सदा नियंत्रित सुधार के समर्थक रहे थे, और वह भी मुखर ढंग से नहीं। लेकिन अब उनके सलाहकारों में शिकागो स्कूल से तैयार किया गए मोंटे पेलरीन के रोबोट्स का दबदबा था।
मेरा ख्याल है कि अब जी-७ की वार्ता के दौरान गोर्वाचोव पर बनाये गए दबाव से लेकर येल्तसिन के सत्तरूढ़ होने तक की कड़ियाँ जोड़ने पर आप रूस को तोड़ने के लिए डिज़ाइन किये गए चालाक झटके को समझ गए होंगे। यह झटका थोड़ा खामोश किस्म का था क्योंकि बोरिस येल्तसिन को "रोपने" के लिये जमीन को कुछ दीसरे ढंग से मुलायम किया जाना जरुरी था।
अब जरा येल्तसिन के आर्थिक सुधारों वाले रूस के माहौल पर गौर कीजिये कि वहां कौन-कौन से परिवर्तन हुए ---
१. खुली आर्थिक नीति के दावों के बावजूद व्यापर का लाभ चंद पहुँच वाले व्यापारियों तक ही सीमित रहा। 
२. राज्य के अधीन उद्योगों को कौड़ियों के मोल डिसइंवेस्ट किया गया। 
३. आम नागरिक की क्रय शक्ति ४०% से निचे गिर गयी और तनख्वाहें महीनो देर से मिलने लगीं । करीब १४ करोड़ देशवासी (पूरी आबादी के आधे से अधिक) गरीबी की रेखा के निचे जिंदगी बसर करने को मजबूर हो गए. 
४. भ्रष्टाचार और संगठित अपराध इस कदर बढे की मास्को अपराधियों का नया तीर्थ बन गया। इसी के साथ देह व्यापार भी बढ़ा।
इतना होने के बाद १९९३ में संसद ने प्रस्ताव पास कर येल्तसिन को दिए आर्थिक निर्णयों के अधिकार वापस लेने चाहे तो येल्तसिन ने आपातकाल घोसहित कर दिया जो की असंवैधानिक भी ठहराई गयी। बाद में येल्तसिन ने संसद भंग कर दी लेकिन पश्चिमी देश उनकी पीठ ठोंकते रहे और उन्हें रूस में जनतंत्र का अग्रदूत बताते रहे। इसके बावजूद संसद ने ६०० से अधित मतों से प्रस्ताव पारित कर येल्तसिन पर महाभियोग लेन की तैयारी कर ली। इससे उत्साहित लाखों लोगों ने मास्को संसद के समर्थन में प्रदर्शन करने शुरू कर दिये; जिन पर येल्तसिन ने गोलियां चलवा दीं। इसमें १०० से ऊपर मारे गये और सैकड़ों घायल हुए।
यही नहीं, येल्तसिन ने रुसी वाइट हाउस पर भी टैंकों से हमला करवा दिया और खुद सम्पूर्ण शक्ति का केंद्र बन बैठा। अब शिकागो के सलाहकारों की बन आई और खुली लूट शुरू हुयी। १९९८ आते आते ८०% प्रतिशत राजकीय उपक्रम या तो दिवालिया हो गए या बंद कर दिए गए। इसकी वजह से जहाँ एक ओर आम रूसी जनता को खाने के लाले पड़ रहे थे वही दूसरी ओर दर्जनो नये अरबपति बन गए, जिनकी सत्ता में ऊंची पहुँच थी। मोंट पेलेरिन के रोबोट्स अपना काम कर चुके थे। गोर्वचोव के समाजवादी जनतंत्र दफना कर अमेरिकी व्यक्तिवादी स्वतंत्रता का नाटक खेला जा रहा था। सार्वजनिक पूँजी स्वाहा हो चुकी थी, उसकी जगह कॉर्पोरेट गुलामी का नया दौर पनपने लगा था।
झटका तगड़ा था लेकिन हिंसा का पैमाना उतना नही था जितना चिली और ब्राजील में था लेकिन अभी और बहुत कुछ होना बाकी था --अफ़ग़ानिस्तान में, ईराक़ में और अमेरिका में भी, जिसकी कल्पना तो मिल्टन फ्रीडमन और वोन हायेक ने भी नहीं की थी। 

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