Saturday, December 10, 2016

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--1 : प्रायोजित हादसों द्वारा जन चेतना का विध्वंस

 जब भी जिंदगी में जोर का झटका लगता है तो कैसा लगता है, महसूस तो किया होगा ?
लेकिन क्या ठीक-ठीक बता सकते हैं कि उस समय कैसा लगा था ? 
यदि आपकी निर्णय शक्ति लगभग सुन्न पड़ गयी हो और आपकी प्राथमिकताएं अचानक बदल गयी हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि यह तो एकदम स्वाभाविक ही है।

अच्छा एक बात बताइये, कि मानसिक रोगियों के उपचार के समय डॉक्टर उन्हें कभी-कभी बिजली का झटका क्यों देते हैं ? 
"शायद उनके मौजूदा व्यवहार सम्बन्धी मानसिक सन्दर्भों (या खलल) को मिटाने के लिए जिससे बाद में उसमें नयी ट्रेनिंग द्वारा नयी सूचनायें दर्ज कर व्यक्ति को सामान्य बनाया जा सके।"---आपका जवाब एकदम सही है।
अब यह सोचिये कि यदि हमें पता चले कि हमारी सरकारें और पूंजी के रखवाले हमारे साथ कुछ ऐसा ही व्यवहार कर रहे हैं कि जैसा डाक्टर मानसिक रोगियों के साथ करता है तो?
या कि हम जीवित और स्वस्थ मनुष्यों को बनावटी, प्रायोजित झटके दिया जा रहे हैं तो?
या फिर हमें बनावटी और प्रायोजित झटके दे-दे कर हमारे हुक्मरान हमें मानसिक रोगी बनाने में सफल हो रहे हैं तो?

जवाब आप खुद सोचिये क्योंकि किसी और के दिए जवाब से अब आपका काम नहीं चलने वाला।

हम अपने विषय की शुरुआत एक ऐसे प्रयोग की चर्चा के साथ करते हैं जो कनाडा के मैकगिल विश्वविद्यालय में डॉ यू. एन. कैमरोन किया। यह प्रयोग उनके पूर्ववर्ती डॉ डोनाल्ड हेब की अवधारणा को स्थापित करने के लिए और उस पर आगे क्रियात्मक विधियां विकसित करने के लिए किया गया जिसमें पश्चिमी देशों की प्रमुख जासूसी एजेंसियों की सहमति और सहयोग शामिल था। उन एजेंसियों ने अपने १९५१ में मॉन्ट्रियल के एक होटल में गुपचुप किये गये अपने सम्मलेन में डॉ डोनाल्ड हेब की अवधारणा को अपने लिए बेहद उपयोगी पाया था और इसे आगे विकसित करने और इसलिए इसे इस्तेमाल लायक बनाने का ठेका डॉ यू. एन. कैमरोन को दिया।

तो क्या थी डॉ डोनाल्ड हेब की अवधारणा ? डॉ हेब ने स्थापित किया था कि "यदि मनुष्य की चेतना को किसी भी प्रकार से आकस्मिक झटके दिए जाएं और उन झटकों की तीव्रता औसत से बहुत अधिक हो, या फिर वे झटके उसे लम्बी अवधि तक दिए जाएं तो उसकी संवेदना, स्मृति, प्राथमिकताओं और निर्णय शक्ति पर मारक असर पड़ता है। "

डॉ कैमरोन ने इस अवधारणा को विकसित करने के लिए एलन मेमोरियल इंस्टिट्यूट स्थित अपनी प्रयोगशाला में अत्यंत दुर्दांत और अमानवीय तरीके से जीवित मानसिक रोगियों को स्पेसिमेन मानते हुए सैकड़ों प्रयोग किये जिनमें अनेकों की मृत्यु हुयी और बहुत कम जिन्दा बचे। अंत में प्रयोग सफल रहा और यह स्थापना पुष्ट हुयी कि मनुष्य की चेतना को पहुंचाए गए आकस्मिक और तीव्र झटकों से मनुष्य की मौजूदा संवेदना, स्मृति, प्राथमिकताओं, निर्णय शक्ति और प्रतिरोधक क्षमता को पूर्णरूपेण समाप्त कर उसका नए ढंग से पुनर्लेखन संभव है।

इस जानकारी का उपयोग सबसे पहले सीआईए ने अपने बंदियों से विरोधी एजेंसियों की सूचनायें उगलवाने के लिए करना शुरू कर दिया। सीआईए ने इस पर एक विस्तृत मैन्युअल भी बनाया जो काफी समय तक उसके सीक्रेट ऑफिसियल इंटेरोगेशन मैन्युअल के रूप में प्रतिष्ठित रहा। हालाँकि इन विधियों का सत्यापन तो कनाडा में हुआ लेकिन क्योंकि प्रयोगशाला की फंडिंग संयुक्त थी इसलिए दूसरी एजेंसियों ने भी से अपने-अपने ढंग से सफलता पूर्वक अपनाया।

अब आप अर्थसत्ता की पहली कड़ी याद कीजिये जहाँ हमने शिकागो विश्वविद्यालय के मिल्टन फ्रीडमन की चर्चा की थी। इस प्रयोग के ही अनुरूप उन्होंने एक आर्थिक अवधारणा बनायी थी, जिसमे कहा गया था कि बीमार अर्थव्यवस्था को भी मानसिक रोगियों की ही भांति आर्थिक झटका देकर क्रान्तिकारी ढंग से पुनर्लिखित किया जा सकता है। यही वह समय था जब उसने अपने ऑस्ट्रियन गुरु फ्रेडरिक वोन हायक के साथ मिलकर दुनिया के शीर्ष अर्थशास्त्रियों को इकठ्ठा किया और मोंटे पेलेरिन के सम्मलेन के बाद मुक्त अर्थव्यवस्था की बीन बजानी शुरू की।

उसके बाद मिल्टन फ्रीडमन के झटका सिद्धांतों को ही आजमाने के लिए चिली में कृत्रिम आर्थिक संकट पैदा किया गया, जन सामान्य को आर्थिक किंकर्तव्यविमूढ़ता की अवस्था में पहुचाया गया और फिर उनकी सारी स्मृतियों को धो पोंछ कर नयी आर्थिक इबारत लिखी गयी। हमें समझ लेना चाहिए कि यह अमेरिका द्वारा किया गया पहला प्रयोग था जिसे आज तक विभिन्न मुल्कों में आजमाया जा रहा है।

अब यह भी देखिये कि राजनीति, अर्थजगत और मानव व्यवहार के शीर्ष पर एक साथ एकमेव अथवा पूरक सिद्धांत कैसे जन्म लेते हैं और उनका प्रयोग निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए हर कहीं कैसे किया जाता है। यही नहीं उनके परिणामों पर भी गौर कीजिये तो आप पाएंगे कि हम आम लोग उनके लिए केवल गिनीपिग हैं और यह दुनिया उनकी विशाल प्रयोगशाला।उनके सिद्धांत, उनके उपकरण और उनकी विधियां हमें समय समय पर उपयुक्त झटका देती, हमारी सांस्कृतिक स्मृतियां और वरीयताएं ध्वस्त करती, हमारी निर्णय क्षमता को अपने पक्ष में मोड़ती कितनी सफल हैं और हमारा प्रतिरोध एक असहाय चीत्कार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 

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