Thursday, December 22, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 5

बाजार और उद्योग पूरक हैं एक दूसरे के.
उद्योग में उत्पादन होता है और बाजार में विनिमय.
उद्योग के लिए बाजार जरूरी है, और बाजार के लिए उद्योग; लेकिन मुक्त बाजार ने खुद को उद्योग से भी मुक्त कर लिया और विनिमय की क्रिया वस्तुओं और मुद्रा के बीच होने की बजाय मुद्रा और मुद्रा के बीच होने लगी.
और मुद्रा भी वह जिसका कोई आतंरिक मूल्य नहीं !! क्योंकि अब वह सिल्वर या गोल्ड स्टैण्डर्ड पर नहीं बल्कि केन्द्रीय बैंक (भारत के सन्दर्भ में रिजर्व बैंक) को दी हुई प्रतिभूतियों पर छापी जा रही थी; जिससे उसकी निजी हैसियत सिर्फ एक पोस्ट डेटेड चेक की रह गयी थी. एक ऐसा पोस्ट डेटेड चेक जिसे देने के साथ या उसके बाद खाताधारक को उसके बराबर रुपये अपने खाते में रखना आवश्यक न रह ही गया हो !
1980 के दशक से उद्योग और उत्पादन अब धन पैदा करने का माध्यम न रह कर वित्तीय और कागजी पूँजी के खेल का गुलाम बन कर रह गया और मौद्रिक विनिमय की रस्साकशी पर नाचने को मजबूर हो गया. बैंक और सट्टा बाजार इस खेल के मदारी बन गए क्योंकि सबकी कागजी पूँजी उन्हीं के पास जमा थी और वे ही इसके व्यवहारिक मालिक थे.
जैसा मैंने पहले कहा था कि बैंकिंग से बड़ा घोटाला इस दुनिया में दूसरा न है और न हो सकता है. इस बात की व्याख्या बाद की किसी पोस्ट में अलग से करेंगे अभी फिलहाल इतना समझ लीजिये कि बैंक आपके जमा पैसे को दूसरों को व्याज पर, उससे कहीं अधिक मूल्य की संपत्ति गिरवी रख कर बतौर ऋण देते हैं और दी गयी राशि से अधिक वसूली करके मुनाफा कमाते और आपके जमा पैसे पर व्याज देते हैं. बस इतना सोचिये कि जो व्यवस्था देखने में इतनी सुरक्षित लगती है उसे अपनाने वाले बैंको को फिर घाटा होता ही क्यों है? जाहिर है वे आपके पैसे से कहीं आगे बढ़कर रिस्क लेते होंगे, इसी को नैतिक जोखिम (moral hazard) कहा जाता है.
अमेरिका की बात मैं बार बार इसलिए करता हूँ क्योंकि आज जो अपने देश में होने वाला है या हो रहा है वह अमेरिका में बीस साल पहले हो चुका है और हम उसी के कदमों से जब कदम मिला रहे हैं तो लाजिमी है हमारे यहाँ भी उसी की पुनरावृत्ति होगी. एक बात और नोट कर लीजिये कि पूँजी और पूंजीपति का कोई भी देश या धर्म नहीं होता, वह सिर्फ मुनाफा चाहता है और मुनाफे का ही मुरीद होता है. अगर ऐसा न होता तो अमेरिका अपने मजदूरों और कारीगरों के हाथ और मशीनों का कम छीनकर अपनी सेवा और मैन्युफैक्चरिंग को भारत, बांग्लादेश, पकिस्तान, तायवान और चीन को आउटसोर्स नहीं करता ! वह आम अमरीकी को काम देता .........लेकिन वहां की कंपनियों को सिर्फ मुनाफा प्यारा है, लोग नहीं; इसलिए जब सस्ते मजदूर दूसरी जगह मिल रहे हैं तो अपने देश के लोगों को ज्यादा मजदूरी क्यों देना ?
तो 1980 के दशक में अमेरिकी पूँजीपतियों ने रीगन सरकार पर दबाव बना कर कई तरह की छूट हासिल की. आपको पता होगा ही कि अमरीकी सरकारों में वित्तीय मामलों के सारे महत्वपूर्ण पद भूतपूर्व बैंकिंग अधिकारियों को ही दिए जाते रहे हैं जिनमे गोल्डमन शाक्स, मेरिल लिंच प्रमुख हैं. फ़ेडरल रिज़र्व का चैयरमैन, ट्रेजरी सेक्रेटरी और राष्ट्रपति का आर्थिक सलाहकार पिछले 35 सालों में यहीं से निकले लोग रहते आये है. इसके आलावा वहां भारी संख्या में वित्तीय कम्पनियों के इतने दलाल सक्रिय हैं कि गिनती की जाय तो हर सांसद के पीछे तीन-तीन दलाल निकालेंगे. अब सोचिये कि मुक्त बाजार का सारा पहाडा एक ऐसे ही स्वतंत्र और प्रजातान्त्रिक (?) वातावरण की देन है.
2008 आते-आते अमेरिका में क्या हुआ ये सभी जानते हैं. उसकी अंतर्कथा आप बाद की पोस्ट्स में पढ़ लीजियेगा, लेकिन मोटे तौर पर इतना जान लीजिये कि लाखों अमरीकी बेघर हुए, उनकी नौकरियां छिन गईं और जो बचे रह गए उनकी तनख्वाहें घटाई गयीं. लेकिन सरकार ने अपने फेल होते बैंकों और बीमा कंपनी AIG को बचाने के लिए 700 बिलियन डालर (सत्तर लाख करोड़ डालर !! सोचिये रूपये में कितना ?) अपने खजाने से दिया.
उसे देना पड़ा क्योंकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था को सभी बैंकरों और वित्तीय संस्थानों के असीम लालच ने एक ऐसे मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया था कि इस “बेल आउट मनी” के लिए आनन-फानन में संसद को क़ानून में परिवर्तन भी करना पड़ा. अगर ऐसा न किया जाता तो दूसरी सुबह अधिकाँश अमरीकियों की व्यक्तिगत जमा पूँजी, जो इन बैंकों में जमा थी डूब जाती.
दरअसल वहां के बैंक अपने कुकर्मों के चलते जबरदस्त बीमार थे और मरने की कगार पर थे.
अपने यहाँ भी पिछले दिनों बैंक बीमार थे, साल भर से उन सबका डिपाजिट रेट बुरी तरह घट रहा था जो जून 2016 से अचानक और रहस्यमय ढंग से बढ़ना शुरू हो गया और सितम्बर आने तक किसी किसी का तो 6% तक बढ़ गया !
फिर हमारे प्यारे प्रधानमंत्री एक शाम को उठे और पुराने नोट बंद करने की घोषणा कर दी. हम आप सभी भारतवासी अपना सारा काला धन लेकर बैंको की तरफ भागे और उनका डिपोजिट बढाया. प्रधानमंत्री ने बैंको से हमें अपने मनमुताबिक पैसे निकाल सकने के हमारे मूल अधिकार भी ख़त्म कर दिए.... जो साफ़ तौर पर हमारे संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों का हनन है.
ऐसा तो किसी आपातकाल में ही किया जाता है, जब युद्ध की स्थिति हो या फिर मुद्रा स्फीति बहुत अधिक बढ़ गयी हो. कौन सा आपातकाल था मैं उसका पता लगा रहा हूँ लेकिन लग नहीं रहा. आपको लगे तो जरा बताईये.

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