भोलूभाई मिसरा ट्यूबलाईट थे इसलिए पढ़ने लिखने से ज्यादा वास्ता नहीं रख सके. दरअसल बातें उनकी समझ में देर से आतीं थीं, और कभी समय पर याद भी नहीं आती थीं, इसलिए स्कूली इम्तहान में वे लटक जाते थे. यहाँ तक कि किसी चुटकुले या हंसाने वाली बात पर भी वे मुंह बाए यूँ ही देखते रह जाते जब कि उनके आस पास के लोग ठठा कर हंसते या दांत चियारते. खैर किसी तरह जब स्कूल से जान छूटी और वे सुखी होने ही वाले थे कि उनकी शादी हो गयी.
शादी के बाद जब घर परिवार से कमाई का दबाव आया तो शहर जाकर एक सेठ के यहाँ नौकरी कर ली. नौकरी इस मामले में बड़े मजे की थी कि दिन भर कुछ मेहनत का काम नहीं करना पड़ता था. सेठ उन पर बहुत यकीन करता था, इतना ज्यादा कि दूकान की चाभी उन्हें ही सौंप देता और दोपहर के समय तो सारी दूकान और ग्राहक भोलूभाई मिसरा के भरोसे छोड़कर खाना खाने घर चला जाता.
लेकिन भोलूभाई मिसरा के ट्यूबलाईट होने का मतलब यह तो नहीं उनके पास दिमाग था ही नहीं! बल्कि जितना भी था उसे वे दूसरों की बातें ध्यान से सुनने और समझने में पूरा लगाते और जब बात समझ आ जाती तो मन ही मन मुस्कराते या सिर हिलाते. इधर वे एक बात बहुत दिन से दिमाग में बसाए हुए थे, या सच कहें तो एक बात उनके दिमाग में बार बार टकराती थी क्योंकि उनका सेठ दूकान में बैठे-बैठे दिन में दो-चार बार लोगों को सुनाने के लिए वह बात बोल ही देता था.
वह बात थी ---“पैसा, हमेशा पैसे को खींचता है”
उन्होंने सोचा- “यह तो अजीब हुआ कि पैसा, पैसे को खींचे! ऐसा भला कैसे हो सकता है?” भोलूभाई सोचते लेकिन उनकी खोपड़ी सांय-सांय करने लगती. जब उन्होंने इसपर बहुत दिन तक अपना दिमाग लगाया तब जाकर उनके समझ में कुछ आया. आखिरकार उनकी ट्यूबलाईट जली और उन्हें एक उपाय सूझा. एक दिन उन्होंने दृढ निश्चय किया कि आज वे भी पैसे से पैसा खींच कर रहेंगे. उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला, महीने की आखिरी तारीख थी और उनकी जेब में सिर्फ कुछ सिक्के बचे थे. अब वे दोपहर होने के इंतज़ार करने लगे कि सेठ खाना खाने घर जाए तो वे अपना प्रयोग शुरू करें.
दूकान में बिक्री की रकम को रखने के लिए एक पुरानी तरह का संदूक था जिसके ढक्कन में एक झिरी कटी हुई थी, उसका फायदा यह था कि सेठ छोटी-मोटी रेजगारी उसी झिरी में से संदूक में गिरा देता था और उसे बार-बार ढक्कन खोलने की जरूरत नहीं होती थी. भोलूभाई का टारगेट यही झिरी थी. एक दिन जैसे ही सेठ दोपहर में खाना खाने गया भोलूभाई ने अपनी जेब से एक अठन्नी का सिक्का निकला और झिरी में टिका दिया और दूसरी तरफ से वे उसे चुटकी में मजबूती के साथ पकडे रहे. सेठ की कही बात के अनुसार और अब उनके अपने दिमाग के अनुसार भी उनका पैसा सेठ के पैसे को खींचने के लिए तैयार था!
इस तरह बहुत देर हो गयी, एक घंटा होने को आया लेकिन संदूक का एक भी पैसा भोलूभाई मिसरा के सिक्के से न टकाराया, न चिपका कि वे उसे अपनी ओर खींच लेते. आखिरकार उनके हाथ थकने लगे, वे ऊबने लगे और उन्हें अपने सेठ पर गुस्सा भी आने लगा कि उसने झूठ-मूठ बात बोल कर उन्हें यह सब करने के लिए उकसाया. भोलूभाई की बढती खुंदक के साथ ही उनकी पकड़ ढीली हुयी और उनका सिक्का टप्प से संदूक के अन्दर जा गिरा.
लेकिन इस बार उनके दिमाग की ट्यूबलाइट एकदम से भकभकाकर जल उठी और उन्हें सेठ की बात वापस से सही लगने लगी क्योंकि सेठ के पैसे ने उनके पैसे को खींच लिया था!
तो धैर्यधन्य पाठकों ! आप बहुत बुद्धिमान हैं और आपकी दुनिया में भोलूभाई जैसे लोग तो नहीं ही होंगे फिर भी भोलूभाई की इस कथा से अपने मतलब की शिक्षा लपक लीजिये और आगे बढिए.
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तो भोलूभाई ट्यूबलाईट की कहानी की शिक्षा यह रही कि “अधिक पैसा कम पैसे को अपनी ओर खींचता है!”
ताकतवर और धूर्त लोगो ने पैसे की ईजाद कर डाली और ऐसी जुगत लगाई कि आप कर्ज में चले जाएँ, उसे चुकाने में आपकी संपत्तियां छिन जायें, फिर वे आपसे जमकर मेहनत मजदूरी कराएं और बदले में आपको अपने छापे हुए पैसे दें, जिन्हें वापस आप उन्ही को सौंप कर अपनी जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने के सामान जुटाएं. और इस तरह उनके पास अधिक से अधिक पैसे जमा होते जायें. बैंक आये, बाजार आये, आपको फुसलाने और बहकाने के लिए के इंतजाम हजार आये .
बाजार आपको कुछ ऐसे ललचाता है कि आप सब कुछ होते हुए भी अहसासे कमतरी से उबर न पाएं. दिन रात आपकी आँख इश्तहार पर और आपका हाथ अपनी जेब पर बना रहे. और इस तरह की जिंदगी बसर करते आप उनके वाजिब असर में बने रहें, और वो जिसको कहते हैं इकॉनमी और जो वास्तव में कर्ज बांटने और उसे वसूलने का तंत्र है --की सेवा में तने रहे. आज हम और आप वस्तुओं के अन्तर्निहित या वास्तविक मूल्य से कई गुना अधिक उनका आभासी मूल्य चुका कर खुश हैं और उनका बखान भी करते नहीं थकते.
मुद्रा, बैंकिंग और बाजार के आगे का एक तंत्र है--वायदा बाजार, जहाँ न कुछ बनता है और न कुछ उगता है. यह पैसा खींचने की अत्याधुनिक मशीन है जो लालच और डर से संचालित होती है और इसमें कम पैसे से अधिक पैसा बनाने के चक्कर में दुनिया भर के भोलुभाई अपनी अठन्नियां लेकर दिन रात पिले पड़े रहते हैं. यहाँ झूठ का बोलबाला और सच्चे का मुंह काला होता है. यहाँ यह काम कानूनी तौर पर पूरी शिद्दत से होता है ! और असंख्य कम पैसे वाले लोग बड़े पैसे को अपनी और खींचने के चक्कर में अपना सिक्का दिन रात खोते रहते हैं.
दरअसल उधारी पर ब्याज और बाजार के नित नये मुनाफा तंत्र के चलते उपभोक्ता के साथ साथ जब उत्पादकों के पास भी मुद्रा की सतत कमी रहने लगी तो उसे पूरा करने के लिए वायदा बाजार का तंत्र उदित हुआ और बढ़ते समय के साथ मजबूत भी हुआ. ऊपर से फियट करेंसी के प्रसार से उद्योग और उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था तो धीरे धीरे दम ही तोड़ने लगी. और आज आलम यह है कि वायदा या सट्टा बाज़ार ही वास्तविक बाजार की दशा और दिशा दोनों निर्धारित करता है.
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जिंसों का वायदा बाजार या सट्टा बाजार भारत में कुछ प्रमुख जगहों से शुरू हुआ. जैसे गुड़ और आलू का हापुड़, चने का इंदौर, जीरे का ऊंझा से; जिसमें मुख्या रूप से आढ़ती जींस के बाजार में पहुँचने से पहले ही उसकी खरीद बेच का करार कर लेते थे. यह करार मौखिक या फिर रुक्के लिख कर किया जाता था और स्थानीय बाजार में ही नहीं सभी सम्बद्ध जगहों में इसकी मान्यता होती थी. करार करने वाले व्यपारियों का नाम अल्सर मशहूर होता था और उनके लिखे करार पर हर कोई यकीन कर लेता था और इसीलिए इन रुक्कों पर पैसों का लेन देन भी हो सकता था.
वायदा बाजार के आरम्भ को समझाने के लिए एक उदाहरण देता हूँ. मान लेते हैं एक आलू बोने वाले किसान के पास नकदी की कमी है और वह बीज, खाद, सिंचाई आदि की कीमत नकद चुकता न कर सकने की वजह से आलू की खेती करने में सक्षम नहीं है. ऐसी हालत में वह या तो बैंक के पास जाए या फिर स्थानीय साहूकार के पास, जो उसे उसकी कोई परिसंपत्ति गिरवी रखकर ऋण दे दे. लेकिन वायदा बाजार की व्यवस्था में वह मंडी के आढ़ती के पास जा सकता है जो कि उसकी भविष्य में आने वाली फसल को खरीदने का लिखित वायदा करके उसे नकद पैसे दे देगा. इस लिखित वायदे को ही सट्टा या करार कहा गया. अब इस सौदे में कीमत वर्तमान समय में, दोनों पक्षों की सहमति से ही तय की जायेगी और सौदे के मुनाफे या नुकसान का जोखिम दोनों पक्ष उठाएंगे. जैसे कि यदि कीमत 2000 प्रति टन तय हुई है तो किसान को अपने अनुमानित उत्पादन के हिसाब से वायदा करना होगा की नियत समय पर वह एक निश्चित मात्रा के बराबर आलू आढ़ती को उपलब्ध कराएगा.
फसल बर्बाद होने या उत्पादन कम होने की सूरत में किसान को उस समय चल रही कीमत दर के हिसाब से करार में लिखी गयीआलू की मात्रा की पूरी कीमत आढ़ती को देनी होगी. दूसरी तरफ यदि फसल अच्छी हुयी और मंदी में फसल की आवक बढ गई और आलू का भाव मंडी में गिर गया तो व्यापारी को नुकसान होगा क्योंकि वह तो किसान को पहले ही अधिक दर से भुगतान कर चुका है.
फसल बर्बाद होने या उत्पादन कम होने की सूरत में किसान को उस समय चल रही कीमत दर के हिसाब से करार में लिखी गयीआलू की मात्रा की पूरी कीमत आढ़ती को देनी होगी. दूसरी तरफ यदि फसल अच्छी हुयी और मंदी में फसल की आवक बढ गई और आलू का भाव मंडी में गिर गया तो व्यापारी को नुकसान होगा क्योंकि वह तो किसान को पहले ही अधिक दर से भुगतान कर चुका है.
जब यह व्यवस्था चल पड़ी तो इसका मंडियों में अधिकाधिक उपयोग किया जाने लगा क्योंकि फियट करेंसी से संचालित अर्थव्यवस्था की वजह से किसानों के पास ही नहीं बल्कि औद्योगिक उत्पादकों के पास भी हमेशा करेंसी की कमी रहने लगी थी. औद्योगिक उत्पादक तो जब कभी कैश फ्लो ठीक होता तब भी अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए या भावों के उतार चढ़ाव को संतुलित करने के लिए इस व्यवस्था का प्रयोग करने लगे थे. इस प्रकार वायदा बाजार निरंतर फैलता गया और सभी प्रमुख धातुयें, खनिज तेल और बहुमूल्य धातुयें भी इसकी लपेट में आ गयीं. आज सभी प्रमुख उत्पादक वायदा बाजार में कीमतें गिरने पर अपनी सलाना जरूरत का करार खरीद लेते हैं और बढ़ी कीमत पर कैश सेटलमेंट करके मुनाफा काट लेते हैं. यही काम शेयर बाजार के लम्बी अवधि के निवेशक भी करते हैं जिससे शेयर्स में उनके लगाये गए पैसे सुरक्षित रहते हैं. आम निवेशकों को चूँकि बाजार के भावों के उतार चढ़ाव को विश्लेषित कर पाने की तकनीक नहीं पता होती और न ही वे इतना समय लगा पाते हैं इसलिए वे अपने लिए ऐसा कोई सुरक्षा कवच नहीं बना पाते. नतीजा कम पैसे वाला गोते खाता है और अधिक पैसे वाला उसका उसका धन बड़ी सफाई से साफ कर जाता है.
यहाँ यह जरूर ध्यान रखिये कि ट्रेडिंग कोई उत्पादन क्रिया नहीं बल्कि इस हाथ का पैसा दूसरे हाथ में पहुंचाने का उपक्रम ही है.
यहाँ यह जरूर ध्यान रखिये कि ट्रेडिंग कोई उत्पादन क्रिया नहीं बल्कि इस हाथ का पैसा दूसरे हाथ में पहुंचाने का उपक्रम ही है.
जिंसों का वायदा बाजार पहले लन्दन और फिर शिकागो में फूला फैला और जापान में भी लगभग उसी के साथ साथ; फिर वहाँ से दुनिया के हर कोने में. भारत में भी इसकी शुरुआत अंग्रेजों के समय से ही रही लेकिन संस्थागत शुरुआत 2003में हुयी.
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चलते-चलते एक दिलचस्प वाकया बयान करता चलूँ जिससे आपको अंतिम रूप से आपको कम पैसे वालों और अधिक पैसे वालों का एक मनोविज्ञान भी समझ आ जाय और साथ में यह भी कि बाजार में बहुसंख्यक लोग किस तरह भोलूभाई ट्यूबलाइट ही साबित होते हैं.
बात शीत युद्ध के उन दिनों की है अमेरिका के इटली और तुर्की में अपने बैलिस्टिक मिसाईल लगाने के जवाब में रूस ने क्यूबा में जवाबी मिसाईल तैनात करने का निर्णय लिया और दोनों देशों में परमाणु युद्ध की सम्भावना बन गयी. पूरी दुनिया पर १३ दिनों तक संकट के बादल मंडराते रहे और अमेरिकी शेयर बाजार बुरी तरह लुढ़कने लगा. आम निवेशक गिरते भावों से आतंकित होकर अपना शेयर फटाफट बेचने लगे और नामी कंपनियों तक के भाव जमीन पर आ गए. सभी यह सोच रहे थे कि युद्ध की स्थिति में अमरीका के व्यापार की बर्बादी निश्चित है. लेकिन यहीं पर दूसरी तरफ एक अल्पसंख्यक वर्ग ऐसा था जो यह जानता था कि युद्ध होगा नहीं क्योंकि ऐसी बर्बादी आखिरकार न रूस के हक में होगी और अमेरिका के.
और अंत में हुआ भी वही राष्ट्रपति केनेडी और रूस के बीच गुप्त राजनयिक समझौता हुआ और अमेरिका ने इटली और तुर्की से अपनी मिसायिलें हटाने का निर्णय लिया, और रूस ने क्यूबा में मिसाईलें लगानेका निर्णय निरस्त किया. जैसे ही खबर फैली बाजार और व्यापार पर इसका असर चौंकाने वाला था. चार दिन के भीतर ही भाव वापस पुरानी स्थिति में लौट आये और जिन लोगों से डरे हुए निवेशकों से मिटटी के भाव शेयर खरीदे थे उन्होंने उसे सोने के भाव बेचा और आखिरकार कम पैसे वालों का नुकसान अधिक पैसे वालों पर मुनाफा बनकर बरसा.
तब से अब तक दुनिया में सैकड़ों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं लेकिन फिर भी लाखों की संख्या में भोलूभाई के बिरादर आज भी अपनी-अपनी अठन्नियाँ लिए सेठ की तिजोरी के पास सटे खड़े हैं, की शायद सेठ का रूपया उनकी अठन्नी से खिंचा चला आये.