Thursday, December 29, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 6

हमारा सानेहा ये है, कि हर दौर-ए-हुकूमत में.
शिकारी के लिए जंगल में, हम हांका लगते हैं.
मुनव्वर राना का यह शेर हर जमाने के उन बुद्धिजीवियों पर एकदम फिट बैठता है जो मिल्टन फ्रीडमैन या फ्रेडेरिक वोन हायक की फितरत के हुए हैं. ये शिक्षण संस्थानों में या तो ख़ास और प्रभावशाली जगहों पर बैठे होते हैं या फिर सत्ता के खिलाडियों द्वारा तैयार करके बिठाए जाते है, हांका लगाने के लिए.
वाजिब टैलेंट के अभाव में ये या तो पुराने प्रचलित अप्रचलित सिद्धांतों का काकटेल तैयार करते हैं या फिर बाजार के चलन को बढाने वाले पोंगा सिद्धांत गढ़ते है, जिसके धुंआधार प्रचार-प्रसार का जिम्मा स्वयं अपने कल्याण के लिए बाजार ही उठा लेता है.
१८४० के आसपास कीर्कगार्द द्वारा तैयार मिटटी से अस्तित्ववाद की पौध का विकास हुआ जिसे नीत्शे और दोस्तोवस्की के बाद सार्त्र ने सींचा. सामुदायिक हितो और जीवन से अधिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात को प्रतिष्ठा देने वाले इस दर्शन के विकास की टाइम लाइन देखिये, ये ठीक ठीक करेंसी आधारित पूँजीवाद के विकास और उसके राजनितिक तंत्र पर कब्जे की टाइम लाइन के साथ फिट बैठती है.
सार्त्र के पहले ही सिसिल रोड्स ब्रिटिश राजघराने के साथ मिलकर अफ्रीका को जमकर लूट चुका था और राजनैतिको पर धनिकों के आधिपत्य का चार्टर तैयार कर चुका था. मरने के पहले उसने अपनी विस्तृत वसीयत में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की रोड्स स्कालरशिप के अलावा एक गुप्त अनाम संगठन बनाने का भी प्रस्ताव दिया था और उसके लिए धन की भी व्यवस्था की थी जिससे विश्व के सभी मुख्या धनिक एक मंच पर आकर इसके लिए प्रभावकारी अभियान छेड़ सकें. बाद में यह संभव भी हुआ और इसी संगठन ने अमरीकी संसद में फ़ेडरल बीसंवी शताब्दी की ऐन शरुआत में फ़ेडरल रिज़र्व बिल पास करवाने में सफलता हासिल की.
फ़ेडरल रिजर्व ही वह बैंको का वह संगठन है जिसके चलते आगे आने वाली अमरीकी सरकारों को वुत्तीय संस्थानों, खासकर बैंको का कर्जदार बनाया जा सका और घाटे के बजट बनने लगे.
अस्तित्ववाद और इस आर्थिक साजिश का अंतर्संबंध चाहे बहुतों के गले न उतरे, लेकिन आर्थिक शक्तियों और बाजार का मुख्य प्रयास हमारी सामुदायिकता को भंग करना और मनुष्य को व्यक्तिवादी बनाना होता है. कारण यह कि सामुदायिकता बाजारू उत्पादों का समाज में स्वच्छंद प्रवेश बाधित करती है. बचत और किफ़ायत के बदले उपभोग बढाने के प्रयास को ऐसे सामाजिक दर्शन और उसपर आधारित साहित्य से अपेक्षित बल मिलता है इसलिए बाजार की शक्तियां ऐसे सिद्धांतों का पोषण भी खूब करती हैं. इनके ही स्कॉलर सभी महत्वपूर्ण पदों पर बैठाये जाते हैं जो आने वाली पीढ़ी के बौद्धिक विकास की दिशा तय करते हैं और इस प्रकार मिलने वाले आकर्षक पारिश्रमिक के बदले शिकारियों की हुकूमत के लिए हांका लगाने का काम करते हैं.
पारंपरिक ज्ञान को नष्ट करना उसे अप्रासंगिक बताना इनका लक्ष्य होता है और बदले में ये जो मॉडल प्रस्तुत करते हैं वह बड़े कर्पोरेटस का हित साधन ही करता है. मिल्टन फ्रीडमैन ने तो वेबलेन की “थ्योरी ऑफ़ लेजर क्लास” और जेरिंग के फैशन की दुनिया के “डिफ्युजन सिद्धांत” से एडम स्मिथ की “वेल्थ ऑफ़ नेशंस” को फ्राई करके जो डिश परोसी उसे खाकर मुट्ठी भर लोग मतवाले हो गए, जब कि बाकी दुनिया का पेट आज तक ख़राब है. सरकारों के साथ साजिश करके पारंपरिक ज्ञान को गलत बता कर कैसे नष्ट किया जाता है इसे जाना हो तो दो डिम पहले पोस्ट किया गया अनुपम मिश्र के विडियो से बढ़िया दूसरा उदाहारण नहीं मिलेगा.
तो इस तरह हांका लगाने वाली जमात और उसके आका मजे करते है, और नाच गाकर समाज को तोड़ने के लिए बौद्धिक, मनोरंजक और हिंसात्मक कार्यवाहियां करते रहते हैं.
टूटा हुआ देश समुदाय, परिवार और उससे मनके की तरह अलग हुआ आदमी बाजार का सबसे आसान शिकार होता है !



No comments:

Post a Comment