Saturday, December 10, 2016

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--5: आतंकवाद के झटकों से मुनाफा

अमेरिका ने किसी मुल्क के संसाधनो पर नियंत्रण करने के लिए एक तरकीब सिद्ध कर ली है; जिसके प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैं ---
१. पहले किसी तरह अपनी पसंद के भौगोलिक क्षेत्र में कुछ संघर्ष पैदा किये जाएं। 
२. फिर उन्हें कोई ऐसा नाम दे कर प्रचारित किया जाये कि जिस बहाने किसी एक पक्ष को मदद पहुंचाई जा सके या फिर उससे लड़ा जा सके। और उस लड़ाई को विश्व मानस में अन्याय के विरुद्ध युद्ध का नाम दिया जा सके। 
३. इन दोनों कार्यवाहियों के सहारे आप संघर्ष पर परोक्ष या प्रत्यक्ष नियंत्रण पा लेते है। 
४. क्षेत्रीय संघर्ष पर नियंत्रण होते ही उस क्षेत्र के संसाधनो और फिर शासन पर परोक्ष नियंत्रण आसान हो जाता है। 
५. फिर इसी परोक्ष नियंत्रण के सहारे अपनी पूँजी का रोपण किया जाता है जो बाद में वटवृक्ष बन जाता है। 
६. इसके बाद उसकी जड़ें गहरी और शखाएं विस्तृत हो कर स्थानीय जीवन शैली में शिराओं की तरह गुम्फित हो जाती हैं। 
७. अब उसे सकना बाद की सरकारों की लिए संभव नहीं होता क्योंकि किसी भी जीवित शरीर (यहाँ राष्ट्र समझिए ) की इतनी सर्जरी संभव नहीं होती।
अब कहानी को एक सिरे से पकड़ते हैं। 
सोवियत रूस के टूटने और वहां पर वैध और अवैध पूँजी के की स्थापना के बाद अमरीका का एक बहुत दिनों से निर्धारित लक्ष्य पूरा हो गया था; लेकिन हथियार लॉबी अभी भी जोर मार रही थी; क्योंकि उसके कमाने के लिया रूस में कुछ ख़ास अवसर नहीं था। इस समय जॉर्ज बुश (सीनियर) की सरकार थी तो उन्हें ही कुछ करना था। इसी बीच सद्दाम ने कुवैत पर कब्ज़ा करके यह मौका उन्हें उपलब्ध करा दिया।
उधर अफ़ग़ानिस्तान गरम हो रहा था, जिसमे अभी के जी बी, आई इस आई और सीआईए का संयुक्त खेल बाकायदा शुरू होना था। अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप, जहीर शाह से लेकर नजीबुल्ला तक की सरकारों के दौरान प्रायोजित उठापटक और सऊर क्रांति, अफगान शरणार्थियों का पाकिस्तान की ओर पलायन, फलस्वरूप पहले तालिबान, और फिर आठ वर्ष बाद अलकायदा का बनना और उस बहाने सऊदी अरब के पैसे और वहाबी लडाको का अफगानिस्तान में घुसना, अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानी हुकूमत--- १९७८ से १९९२ के बीच हुए इन सारे घटना क्रमों ने अमरीका को यहीं सक्रिय होने की जमीन उपलब्ध करा दी।
दस बारह साल के बीच फैले इस घटनाक्रम का कई कोनों से विश्लेषण हो चुका है, लेकिन इसमें आर्थिक कोण को उतना महत्व नहीं दिया गया जब की वही सर्वाधिक महत्व पूर्ण है। यहाँ ज्यादा विस्तार में न जाते हुए केवल कुछ विन्दुओं को रेखांकित करता हूँ जिससे की यह कोण स्वयं स्पष्ट हो जाये -----
१ . यह तो सर्वविदित है ही कि विश्व अर्थव्यवस्था के तेल पर आधारित है
२. अमेरिका के हित तेल भण्डार रखने वाले देशों से अनिवार्य रूप से जुड़े है।
३. इराक में पूरी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल का भंडार है।
४. सद्दाम ने कुवैत पर हमला उसके तेल के कुओं पर कब्ज़ा करने के लिए किया। ऐसा इसलिए उसे जरुरी लगा क्योंकि कुवैत के बढ़ते उत्पादन की वजह से तेल की कीमतें बढ़ नहीं पा रही थीं जब कि इराक़ चाहता था की वे बढ़ें और वह बढ़ती कीमतों के सहारे अपने विदेशी मुद्रा के घाटे को नियंत्रित कर सके जो कि खतरनाक हद तक बढ़ा हुआ था।
५. सऊदी अरब में तेल से मालामाल होने के बाद इस्लामिक नेतागीरी में चमकने की महत्वकांक्षा जन्म लेने लगी थी और दुनिया के मदस्यों को खैरात बांटने के अलावा वहां के सर्वाधिक धनी बिन-लादेन खानदान के एक लड़के ओसामा ने इसी को अपना करियर बनाने की सोची।
६. इसी के साथ कुरान जैसे गूढ़ ग्रन्थ को ---जिसकी व्यंजनाए सदियों से विद्वानो के कुतूहल का विषय रही थीं --सऊदी अरब ने एक झटके में ही समझ लिया और उसी को उसका शुद्धतम और अंतिम भाष्य मान कर अपने पैसे के बूते दुनिया भर में प्रचारित करने शुरू कर दिया। हदीस को मरोड़ कर कबीलाई मान्यताओं के साथ गूंथकर शरिया कानून बनाये गए, उन्हें तानाशाही ढंग से लागू किया गया और दुनिया में इस्लामिक राज्य कायम करने का शेखचिल्ली रवैया शुरू हुआ, जिसका आधार क्रूरतम कट्टरता थी, और आज भी अपने विकराल रूप में हमारे सामने है ।
७. यह सभी बातें अमरीका (और सीआईए को) को भाती थीं...... क्योंकि कट्टरता संघर्ष को जन्म देती है और संघर्ष बाहरी हस्तक्षेप के लिए वाजिब कारण और जमीन तैय्यार करता है जिस पर पूँजी और व्यापार का वटवृक्ष रोपा जा सके। यही कारण रहा और है कि जनतंत्र और आजादी का ढोल बजाने वाला अमरीका अरब मुल्कों की कट्टरता और तानाशाही पर हमेशा साजिशी चुप्पी रखता आया है।
१९९६से २००१ के बीच अफ़ग़ानिस्तान में चले गृहयुद्ध पर केंद्रित हो कर सोचते हैं। काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद मसूद और दोस्तम के नॉर्थर्न अलायन्स और तालिबान के बीच हो रही लड़ाई मे पाकिस्तानी तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने खुल कर पाकिस्तान से अल कायदा को फौजी मदद पहुचाई थी। लाखों अफगानी नगरिक मारे जा चुके थे और इतने ही शरणार्थी के रूप में संयुक्त राष्ट्र को चिंतित होने की जमीन मुहैय्या करा रहे थे।
खेती की जमीन तैयार थी। उर्वरता बढ़ने के लिए ओसामा बिन लादेन ने भी अपना अड्डा अफ़ग़ानिस्तान की तोरा बोरा पहाड़ियों में बनाया हुआ था। अब सिर्फ इन्तजार था तो अंतिम झटके का की जिसके तहत सर्व शक्तिमान जी आएं, दुष्टों का नाश करें और अपने वंश की अमरबेल यहां रोप जाएं। यह झटका तीन ऐतिहासिक दिनों में ९, १० और ११ सितम्बर २००१ को आया जिससे की पूरे विश्व की जमीन हिल गयी, लोगों की सोच बिखर गयी और दुनिया सीधे दो ध्रुवों में बाँट गयी। लोग पीछे की बातों का तारतम्य भूल गए और सुर नर मुनि सभी एक साथ मानसिक रूप से विश्व प्रभु अमरीका के साथ हो गए।
----९ सितम्बर २००१ को ओसामा के तैयार किया हुए दो अरब फिदायिनों ने मसूद की हत्या कर दी।
----एक और ताजुब की बात १० सितम्बर को अमरीका में डोनाल्ड रमजफील्ड ने अमरीका में सार्वजानिक घोषणा की कि हमारे (पूँजीवाद के) सबसे बड़े दुश्मन का सफाया हो चुका है लेकिन अमेरिका का उससे बड़ा दुश्मन तो घर के भीतर ही बैठा है। और वह है पेंटागन की अफसरशाही। इसे समाप्त कर सुरक्षा मामलों को प्राइवेट सेक्टर में लाने की जरुरत है। इस विचित्र से लगने वाले वक्तव्य पर सामान्य अमरीकी जन भी चकित हुए लेकिन गूढ़ार्थ खुलने में कुछ ही दिन लगे।
----इसी के ठीक दो दिन बाद ११ सितम्बर को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ। जो कि जाहिर है एक दिन की तैयारी का परिणाम नहीं था इसके लिए महीनो क्या साल भी पड़ सकता था।
अब सहज बुद्धि से इन तीनो बिन्दुओ को जोड़िये तो जो तस्वीर उभरती है वह डरावने सत्य का दर्शन कराने वाली है।
हथियारों और सुरक्षा उपकरणों के सौदागर जो अब तक कृतार्थ नहीं हो पाये थे वे सब गंगा नहा गए। साथ में निर्माण, शिक्षा और दूसरे उद्योगों ने भी उनके साथ कुम्भ का लाभ लिया।
और सबसे ऊपर याद रहे इस दौरान अमरीका में एक ऐसे व्यक्ति का शासन था जो अपने बाप के रसूख के बल पर चुनाव में धोखाधडी कर राष्ट्रपति बना था और अपने आरंभिक वर्षों में कुछ भी नहीं कर पाया था। जरा सोचिये कि कितनी जरुरत थी उसे लोगों की निगाह में हीरो बनने की ! बिलकुल थैचर की तरह। और वह सिर्फ हीरो ही नहीं बना, अपने देश के पूँजीपतियो की आँखों का तारा भी कहलाया।
आपकी उत्सुकता को बढ़ाते हुए एक बात और बताता चलूँ कि जॉर्ज बुश और उनके पिता का सऊदी अरब के बिन लादेन परिवार के बहुत करीबी रिश्ता रहा है। बुश सीनियर अपना अमरीकी राष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल समाप्त करने के बाद बिन लादेन की कंपनी से बतौर सलाहकार १ लाख डॉलर प्रतिमाह का मानदेय वसूलते रहे हैं......
.९/११ को ट्विन टावर के ध्वस्त होने की रात सऊदी अरब के अमरीका स्थित राजदूत को ह्वाइट हाउस में डिनर के लिए आमंत्रित किया गया और उसी रात को बिन लादेन परिवार के १३१ सदस्यों को अमरीका से चुपचाप चार्टर्ड हवाई जहाज से सऊदी अरब सुरक्षित भेज दिया गया जिसका आधिकारिक रिकॉर्ड भी मौजूद है । सीखने की चीज यह है की उस रात पूरे अमेरिका में सारी घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय हवाई उड़ने बंद कर दी गयी थीं यहाँ तक कि कई मशहूर लोग (गायक रिकी मार्टिन और पूर्व राष्ट्रपति बुश सीनियर समेत) भी हवाई अड्डों में उड़ानें सामान्य होने तक फंसे रहे थे ।
आप इन घटनाओं के अन्तर्सम्बन्धों को जोड़िये, अगली कड़ी में अफ़ग़ानिस्तान और इराक के युध्द के मुनाफे पर पूरी तरह केंद्रित रहूँगा।

No comments:

Post a Comment