Sunday, June 18, 2017

मलाई बाबू की फैक्टरी

एक थे मलाई बाबू, उनकी एक फैक्टरी थी, जिसमें करीब बीस लोग काम करते थे

मलाई बाबू बड़े सयाने सबसे खींच कर काम लेते, टाइम पे तनख्वाह देते, जो माल बनता उसको दुगुने दाम पर बाहर बेचते और महीने के महीने ऊपर की मलाई खा जाते अपने कारीगरों की हारी-बीमारी में हमेशा तैयार रहते उनकी मदद करते, पूजा और जागरण में बढ़िया चन्दा देते  
 
मतलब सब मजे में और व्यवस्थित चल रहा था  लेकिन बस एक बात थी --मलाई बाबू को भूख कुछ अधिक लगती थी इसलिए वे हमेशा ज्यादा  से ज्यादा मलाई का इंतजाम करने की जुगत में भी रहते थे इसको वे तरक्की कहते थे और यह भी कहते थे कि सबको तरक्की करनी चाहिए, बिना तरक्की के कोई जिंदगी नहीं है  अपने कारीगरों को भी वे तरक्की करने के लिए उकसाते, जिसका मतलब होता कि ज्यादा से ज्यादा माल कम से कम समय में बनाओ    

जाहिर है कि मलाई बाबू की फैक्टरी में जो माल बनता उसमें हाथ का काम ज्यादा होता था इसलिए कारीगरों की भूमिका बहुत रहती थी, और शायद इसीलिए मलाई बाबू अपने कारीगरों की पूरी देखभाल करते थे और अच्छे कारीगरों पर फ़िदा भी रहते थे 


फिर एक दिन एक और बाबू साहब आये, मलाई बाबू को उन्होंने कुछ मशीनों की बाबत बताया और यह भी बताया कि एक मशीन सौ-सौ कारीगरों के बराबर माल बना सकती है लेकिन मशीन की कीमत कुछ ज्यादा थी, इतनी कि मलाई बाबू  अगर अब तक की खायी हुई  सारी मलाई उगल देते तब भी उसका दाम नहीं चुका सकते थे 

लेकिन इसी समय उसी शहर में रहने वाले बैंक बाबू मेहरबान हुए और उन्होंने मलाई बाबू को कर्ज लेने की सलाह दे डाली   बैंक बाबू ने समझाया कि मशीन के आते ही महीने में दस गुना माल बनेगा, और बनेगा तो बिकेगा, बिकेगा तो मलाई भी दस गुनी आएगी और कर्जा तो चुटकियों में चुक जाएगा मलाई बाबू को बात जंच गयी  उन्होंने मशीन खरीद डाली और कुछ ही दिनों में जहाँ कारीगर बैठते ऊंघते और बतियाते हुए काम करते थे वहां एक बढ़िया चमचमाती मशीन हरहराने लगी  माल बन बन के बाहर बिजली की सी तेजी से आने लगा इकठ्ठा होने लगा  कारीगर ख़ुशी  और आश्चर्य से देखते रहे, एक बार फिर उन्होंने अपने मालिक के दिमाग और समझदारी का लोहा मान लिया और उनके मन में मलाई बाबू  के लिए श्रद्धा उमड़ आई  मलाई बाबू ने उनमे से कुछ कारीगरों को मशीन चलाना भी सिखाया और उन कारीगरों का दर्जा बाकियों के बीच खास हो गया   

खैर, महीना बीता और तनख्वाह का दिन आया सबको तनख्वाह मिली लेकिन उसी के साथ बीस में से पंद्रह मजदूरों को छुट्टी का भी आदेश मिला, क्योंकि अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी थी  पांच को दिन रात मशीन चलाने और ऊपरी देखभाल के लिए रख कर मलाई बाबू ने बाकी पंद्रह को घर भेज दिया  

इसके बाद निम्नलिखित बातें और हुईं ----

१. ज्यादा माल बनाने के लिए ज्यादा कच्चे माल की जरूरत आन पड़ी जिसके लिए पास में अतिरिक्त पूँजी न होने से मलाई बाबू ने बैंक से और कर्ज लिया, और बैंक ने ख़ुशी ख़ुशी दिया.

२. जिन मजदूरों की काम से छुट्टी हो गयी थी उनके पास पैसे न होने से उनकी क्रय शक्ति में कमी आई और इतना ही नहीं उनके खाने के भी लाले पड गए और जाहिर है कि वे और भी कम वेतन में काम करने को उपलब्ध हो गए.
3. इधर मलाई बाबू की मशीनों के बढ़ाये उत्पादन की बदौलत बाजार में  माल की भी भरमार हो गयी.

४. खरीदार  न होने या कम होने और माल की भरमार की वजह से मलाई बाबू  को अपने माल के  दाम भी घटाने  पड़े जिससे उनका मुनाफा कम हुआ.

५. मुनाफा कम होने से मलाई बाबू की मलाई ही और ज्यादा नहीं पतली हुई, बल्कि उनकी हालत भी पहले से ज्यादा पतली हुई, क्योंकि माल बिके, न बिके, सस्ता बिके या उधार बिके उनको मशीनों और कच्चे माल की खरीद के लिए  लिया हुआ कर्ज तो ब्याज समेत चुकाना था, जिससे वे मुकर नहीं सकते थे क्योंकि इसके लिए उन्होंने अपना घर भी बैंक के पास गिरवी रखा था    .
 
लेकिन जो भी होता या हुआ, मलाई बाबू का तो विकास हो चुका था और उनके कारीगर भी अब एक विकसित दुनिया में आगे बढ़ने को मजबूर थे सो इससे भी आगे चलकर कई अन्य परिवर्तन देखने को मिले.

१. फैक्टरी में माल तो खूब बना लेकिन बाजार ठंडा होने से बिक्री नहीं हुयी तो मलाई बाबू की किश्तें रुक गयीं, फिर उन्होंने कोई दूसरा बहाना करके बैंक से एक और लोन लिया जिसका आधा तो  पिछले लोन का ब्याज चुकाने में ही चला गया.

२. उनके निकाले हुए कारीगरों में जिन्हें कहीं और कोई काम न मिल पाया वो इधर उधर से झूठे सच्चे वादे करके पेट पालने के लिए कर्ज लेते रहे या अपना कुछ न कुछ बेचते रहे. सुनते हैं कुछ ने आत्महत्या भी की.

३. कामगारों में क्रयशक्ति चुक जाने से बाजार ठंडा था और वह ठण्ड सबको अपनी चपेट में ले रही थी.... इतनी कि देश का वित्त भी चित्त होने को आ गया.




अंत में यहाँ यह भी जोड़ना जरूरी है  कि देश में मलाई बाबू अकेले नहीं थे और न उनकी ही एक मात्र फैक्ट्री थी जो माल बनाती थी. देश लाखों मलाई बाबुओं से भरा पड़ा था और करोड़ों कारीगरों से..... और सबके सब अपने को इस नयी स्थिति के मुकाबिल पा रहे थे और अपने ढंग से इससे निपटने में लगे थे लेकिन फिर भी अधिकाँश लोगों की जेबों में वह आइटम हमेशा जरूरत से कम ही ठहरता था, जिसे पैसा कहते हैं.  

लेकिन इस सब झमेले से अलग बैंक बाबू नाम का जो आदमी था वह उसी शहर में  बड़े मजे में था. वह लोगों को, उनकी कोई न कोई कीमती चीज अपने पास गिरवी रखकर,  दिल खोल कर  पैसे दे रहा था.

पर यह न भूलिए कि ये वही पैसे थे जो लोगों ने अपनी कमाई से बचत करके उसके पास रख छोड़े थे.     

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इतना हो जाने के बाद देश के कर्णधारों के बालों में सोयी हुयी जुएँ जाग उठीं  और उनके कानों पर चढ़कर रेंगने लगीं... फलतः वे भी जागे और  देश के नागरिकों को पीड़ा में देखकर पीड़ित होने का नाटक करने को बाध्य हुए.

नाटक के प्रथम दृश्य में उन्होंने इस बदली हुयी स्थिति की तारीफ़ करनी शुरू की और लोगों को बताया कि हम आगे बढ़ रहे हैं और दुनिया के कदम के साथ कदम मिलाकर विकास कर रहे हैं ... और विकास करना रोटी खाने और सुखी संतुष्ट रहने से भी ज्यादा जरूरी है, और यह भी कि विकास करने के लिए असंतुष्ट रहना भी बहुत जरूरी है! और विकास करना तो बहुतै ज्यादा जरूरी है क्योंकि पूरी दुनिया विकास कर रही है और सिर्फ विकास करने के लिए ही जमीनें खोद रही है और आसमान में उछालें मार रही है !

दूसरे दृश्य में कर्णधारों ने देशवासियों से अपील की कि वे विकास करने के लिए बैंक से जितना चाहें रूपया ले लें और विकास करें, उन्होंने बैंको को कहा कि वे लोगों को रूपया दें और विकास करवायें, नहीं तो लोगों का जो पैसा उन्होंने जमा कर रखा है उस पर कल को ब्याज कहाँ से देंगे ? 

इस तरह अपना सबसे प्रिय काम (यानी कि बोलना) करके कर्णधार चुप हो गए और बाकी दुनिया की खैर खबर लेने में लग गए क्योंकि उन्हें अक्सर बाहर जाकर भी कुछ न कुछ बोलना पड़ता था .

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तो धैर्यवान पाठको ! इस तरह देश के सैकड़ों मलाई बाबू लोग अपने ही लालच के जाल में फंस गए, और ऊपर से मालामाल और भीतर से कंगाल होते गए. कामगार और मजदूर बेकार होते गए, देश के कर्णधार  अपनी अपनी फड़ जमाकर जादू का खेल दिखाने के काम में लग गये, जिनसे पस्तहाल  कामगार थोडा मस्तहाल हो सकें.

एक चकाचक युग का उदय हो गया था. चारों तरफ हचक के रूपया कमाने की होड़ लग गयी थी ...रूपया और सिर्फ रूपया ...कहीं से भी किसी भी तरह .....हाथों के बूते कुछ बनाने, बेचने और जरूरत के पैसे कमाने का सिलसिला मशीनों के एक क्रांतिकारी हल्ले में दम तोड़ गया था. हाथों को काम नहीं था मगर मशीने दनादन चल रही थीं. चमकदार सामानों से बाजार अंटे पड़े थे, मगर खरीददार कम होते जा रहे थे.  मलाई बाबुओं की कडाही बड़ी लेकिन  मलाई पतली होती जा रही थी.

कामगारों की चिंता कामगार करें या उनके रिश्तेदार करें, फिलहाल मलाई बाबुओं की चिंता का हरण करने के लिए देश के कर्णधार चिंतित हो उठे और उन्होंने बैंक बाबुओं की पूरी फ़ौज इस काम में लगा दी. बैंक बाबुओं ने खरीददारों को उकसाने के अनेक जुगाड़ बनाये, उन्हें जेब में साईकिल भर के पैसे होते हुए मोटरसाईकिल और मोटरसाईकिल भर के पैसे  होते हुए कार खरीदने की जुगत बताई जिससे बाजार का थमता पहिया घूमता रह सके.

आगे चलकर नतीजा यह हुआ कि बेरोजगार लोग कर्ज लेते और नई चीजें खरीद लेते, मलाई पतली होते हुए भी मलाई बाबू लोग बैंक से खींच कर कर्ज लेते और अपनी फैक्टरी में झोंक देते अंधाधुंध माल बनाते और बाजार में झोंक देते. आम लोग और बेकाम लोग भी फिर से कर्ज लेते और कर्ज के पैसे के साथ अपनी खुशियाँ भी बाजार में झोंक देते. झोंका झोंकी का यह अंधा खेल कभी कभी झोंटा झोंटी में भी बदल जाता और खबर नवीसों को  नया दिलचस्प आइटम मिल  जाता.    

इस बीच देश के कर्णधारों जाने कैसे पता चल गया  कि जनता पिस रही है और उसी चक्की में पिस रही है जिस चक्की का आटा  खा-खा कर वे मुटा रहे थे तो उन्होंने परेशान लोगों का कल्याण करने की ठान ली और दनादन अपना दूसरा प्रिय काम शुरू किया जिसे योजना बनाना कहते हैं. इन योजनाओं में  कुछ लोगों की कर्ज माफ़ी, आवश्यक  वस्तुओं की कीमतों में छूट और यहाँ तक कि काम के  बदले अनाज और पैसा दिए जाने की रंग बिरंगी योजनायें शामिल थीं. लोगों ने योजनायें देखीं, चखीं और भोगीं और उनपर वोटों की बौछार कर दी.... और कर्ण धार जनता को सुखी और इसीलिए बेकार मानकर फिर वापस अपने खोल में लौट गए.  
आज कई दशक बीत गए अब यह बाकायदा एक सिलसिला है, परंपरा है, मनोरंजन है रोजगार भी है. मलाई बाबू लोग कर्ज में हैं. कामगार हों, किसान हों, दुकानदार हों, सेवादार हों या खुद माबदौलत सरकार हों --- सभी कर्ज में हैं. कर्ज अब मर्ज नहीं रहा हमारे विकसित समाज की प्राणवायु है जिसका सेवन करना आधुनिकता के बीच जिन्दा रहने की पहली शर्त है. कर्ज हमारी जीवनी शक्ति है उसपर हमें गर्व है !

यह आराम का युग है, हाथों को काम नहीं है, हाथ काम करना भूल चुके अब, वे सिर्फ बटन दबाते हैं.


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अब इस कहानी को इस ब्लॉग में  पहले कही गयी मुद्रा  यानि करेंसी की कहानी की पृष्ठभूमि में पढ़िए और इस युग की सबसे बड़ी विसंगति की ओर एक नजर दौड़ाइये.  

आप पाते हैं कि करेंसी दिन रात पैदा हो रही है क्योंकि सिर्फ छापेखाने से पैदा की जा सकती है और उसके लिए मात्र देश के कर्णधारों और कुछ बाबू टाइप लोगों के दस्तखत चाहिए जब कि जीवनोपयोगी वस्तुएं  प्राकृतिक स्रोतों के दोहन से बनती हैं और उनकी सीमा है इसलिए किसी भी गणित से प्राकृतिक या मशीनी उत्पादों की मात्रा के साथ करेंसी की संगति नहीं बैठ सकती; अगर उसे छापने वाले और संग्रह करने वालों की योजना में मलाई का लालच शुमार है. पर  लालच तो हमारे युग की एक मात्र चालक शक्ति है. मत भूलिए कि मलाई बाबू ने मशीन भी लालचवश ही खरीदी थी.

ऐसा नहीं है कि सरकारी या व्यापारी लोग इस विसंगति को नहीं समझते. वे  तो यह भी समझते हैं कि इस विसंगति के चलते उनकी व्यवस्था का पहिया हमेशा नहीं घूमता  रह सकता इसलिए वे उसकी सूखती धुरी में तेल डालने का काम भी करते रहते हैं. “कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी” और सरकारी “जन कल्याण योजनायें” इसीलिए चलायी  जाती हैं कि अंधाधुंध मुनाफा और  टैक्स के तंत्र द्वारा फिर कुछ चुनिन्दा जगहों में इकठ्ठा हुआ पैसा वापस तंत्र में पहुंचे और फिर से और अधिक मुनाफा अर्जित करने का बायस बने.

अगली कहानी में आपको बताएँगे कि कैसे चढ़ाया भेड़ियों ने अपने  ऊपर हिरन का खोल, और खोलेंगे जनकल्याण  योजनाओं की पोल.