Wednesday, December 14, 2016

आधुनिक सभ्यता का चरम

दर्शक बनकर देखिये जरूर, लेकिन बुनियादी मानवीय मूल्यों को क्षरित न होने दीजिये. अपनी नैतिकता की रक्षा जरूर कीजिये. हर सभ्यता में मूल्यों और अकांक्षाओं का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है, लेकिन हर सभ्यता के चरम काल में उच्चवर्ग सर्वथा नैतिकता विहीन और मूल्यरहित हो जाता है.
जो कुछ मैं ब्लॉग या फेसबुक पर लिखता हूँ वे सभी पूँजी के साजिशी इतिहास पर मेरी आने वाली पुस्तक से उद्धृत संक्षिप्त झलकियाँ हैं, इसलिए कभी-कभी विषयों का तारतम्य न मिले तो पोस्ट्स को आपस में जोड़ कर आप खुद ही असली कहानी तक पहुँच सकते हैं.
हो सकता है आपको मेरे लिखे में कभी घटिया जासूसी लेखकों जैसा भी कुछ लगे जो आसानी से यकीन करने लायक हो, तब भी अगर उसे, आप सत्ता के संघर्ष और लालच के खेल से जोड़ कर देखेंगे तो स्वाभाविक लगेगा. पोस्ट्स में विस्तार की एक सीमा होती है, बहुत बार, अलग लाग कारणों से सबूतों को अपलोड नहीं किया जा सकता, हाँ बाद में ब्लॉग में उपलब्ध करा दिया जायेगा.
पुस्तक पूरी होने में अभी साल भर से ऊपर का समय लग सकता है और जैसे-जैसे मैं इसके अलग-अलग अनुच्छेदों पर काम कर रहा हूँ मुझे लगने लगा है की सत्य वास्तव में कल्पना से भी विचित्र और नाकाबिले यकीन होता है. क्योंकि काल्पनिक कहानियाँ लिखते समय लेखक अपने झूठ में दुनिया का झूठ मिक्स करके ऐसा प्लाट रचता है जो असली जैसा लगे और जिस पर लोग आसानी से यकींन कर लें. लेकिन जब आप सच खोजने निकलेंगे तो आपको धुंध के पार देखना पड़ेगा.,,, और अक्सर जो दिखाई देगा वह सामान्य तो नहीं ही होगा, क्योंकि रोजमर्रा की जिंदगी में हमें अभिनय देखने की आदत हो गयी है.
सच को खोजते समय ध्यान रखना चाहिए कि हर प्रत्यक्ष घटना का एक नेपथ्य होता है, सामने स्टेज पर चल रहे अभिनय के पीछे, बैकस्टेज की गयी तैय्यारी और अभिनेताओं के असल रूप तक पहुँचना होता है, क्योंकि उद्योग, व्यापार, राजनीति और सामाजिक जीवन में लोग एक से एक अभिनय में विन्यस्त हैं और आपको पैसा वसूल टाइप का मनोरंजन दे रहे हैं. उनका उद्देश्य आपकी समझ को विभाजित करना, भटकाना, मूल्यों को प्रभावित करना और उसकी ब्रांडिंग करना है.
इसलिए दर्शक बनकर देखिये जरूर, लेकिन बुनियादी मानवीय मूल्यों को क्षरित न होने दीजिये. अपनी नैतिकता की रक्षा जरूर कीजिये. हर सभ्यता में मूल्यों और अकांक्षाओं का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है, लेकिन हर सभ्यता के चरम काल में उच्चवर्ग सर्वथा नैतिकता विहीन और मूल्यरहित हो जाता है.
रोमन सभ्यता के पतन के समय भी यही हुआ था जो सब आज हो हो रहा है.
सभ्यताएं जब मिटती हैं तो बहुत सा कोलेटेरल डैमेज साथ होता है.
मत भूलिए कि डायनासोर मिट गए, काक्रोच अभी भी जिन्दा हैं, आगे भी रहेंगे और वे डायनासोर से ज्यादा पुराने हैं.
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ऊपर अभी जो मैंने मानवीय मूल्यों के क्षरित न होने देने और और अपनी नैतिकता की रक्षा करने की बात आपसे की थी उसे समझाने का काम मुझसे अधिक अच्छी तरह से मेरे मित्र नीतीश के. एस. ने एक बहुत बढ़िया उदहारण देते हुए कर दिया है, आपको जरुर पढना और मानना चाहिए अपने को इंसान बनाये रखने में इससे आपको बहुत मदद मिलेगी---
कभी ग़ौर करियेगा, सड़क के कुत्ते कभी किसी लंगड़े या टूटी टांग वाले कुत्ते से लड़ते नहीं हैं। बल्कि वो उसके लिए खाने में एक हिस्सा छोड़ देते हैं। विकलांग गाय-बैल को आवारा बैल -सांड़ सींग नहीं मारते। कूड़ा घर में थोड़ा खिसक कर उसके लिए भी खाने की जगह बना देते हैं। बन्दर कभी भी चोट खाये बन्दर को किनारे नहीं रखते, बीच में रखते हैं। 
अब विकलांगों के बारे में इंसानों का नजरिया याद कीजिये। स्टेशन पर भीख मांगते हुए, चौराहे पर गंदे संदे हाल में पड़े हुए, अस्पतालों में लाचार ज़िन्दगी को कभी सामान्य नहीं माना। कभी अपने साथ भीड़ में शामिल नहीं करना चाहा। इसलिए नहीं कि हम उनकी परवाह करते है और उन्हें भीड़ की गति में ताल मिलाने में असुविधा होती, अतः उन्हें छांट दिया गया, बल्कि इसलिए की हम उन्हें घृणा की नज़र से देखते हैं। दान करना पुण्य का काम नहीं, पुण्य के लिए किया गया काम है। भीख भी उन्हें असामान्य मान कर उनके ज़रिये पुण्य कमाने की नीयत से दी जाती है। वरना कोई उन्हें सड़क तक पर न रहने दे। भेड़िये और लोमड़ियों में समूह के घायलों के लिए खाना ले कर आते हैं शिकार पर जाने वाले। शेर भी ऐसा ही करते हैं। हम विकलांगों को बस नया नाम दे देते हैं, आरक्षण दे देते हैं। बस वो सामान्यता नहीं दे पाते जिसकी उन्हें ज़रूरत है। आख़िर क्यों नहीं उनसे एक सामान्य इंसान की तरह बर्ताव कर पाते हैं हम? क्यों हमारे लिए किसी के हाथ-पांव उसके बर्ताव से अधिक महत्वपूर्ण हैं? क्यों हम उसको उतनी इज़्ज़त नहीं दे सकते जितनी किसी बिना अक्ल वाले तक को दे देते हैं? उन्हें हमारे बर्ताव में बदलाव की ज़रूरत है। हमारी भीख , हमारी मदद या सहानुभूति की नहीं। अगर हम ऐसा करते हैं तो विकलांग हम हैं वो नहीं।
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अब इसी सन्दर्भ में Arya Guddu की यह कविता-- 
बेबकूफ आदमी या फिर अजीब आदमी
जैसी कोई चीज कहीं नहीं पायी जाती . दरअसल होता यह है कि कुछ लोग उम्मीद करते हैं दूसरों से कुछ ज्यादा धैर्य , कुछ ज्यादा ध्यान, कुछ ज्यादा उदारता और कुछ ज्यादा समझदारी की .

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