Monday, December 19, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 4

जैसे किसी पुजारी का लौंडा जुआरी हो जाय वैसे ही मिल्टन फ्रीडमैन ने अपने गुरु एडम स्मिथ के किये धरे पर पानी फेर दिया और उनके पूँजीवाद के सिद्धांत को उलट कर सर के बल खड़ा कर दिया. जैसा मैंने कहा कि फ्रीडमैन जरा बड़ा बुद्धिजीवी था तो उसको अपने को साबित करने के लिए कुछ अलग कर दिखाना भी था, इसी चक्कर में उसने एक बड़ा घपला किया.
अनैतिक और फंदेबाज वकील जैसे किसी मामले में अपने अनुकूल क़ानून न होने पर किसी और सन्दर्भ के क़ानून को इम्पोर्ट करके अपनी दलील पेश करते हैं वैसे ही फ्रीडमैन ने ब्रिटिश न्यायविद रुडोल्फ वोन जेरिंग के ट्रिकल डाउन नामक कल्चरल डिफ्युजन के सिद्धांत को बाजार पर लागू करने की साजिश की और उसे आर्थिक सन्दर्भ में लागू करने की योजना बनायी. चूँकि यह सिध्दांत मूलतः खानपान और फैशन की दुनिया का सिध्दांत है, और १८९० में प्रतिपादित होने के पहले भी सार्वभौमिक व्यवहार में, तभी से प्रचलित था जब से समाज में परजीविता का समावेश हुआ, इसलिए इसको आर्थिक जगत में भी स्वीकार करवाने में फ्रीडमैन की गैंग को कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुयी.
दिक्कत तो यूँ भी नहीं होनी थी क्यूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद जर्मनी को बनाने में मोटी कमाई कर चुकी अमरीकी पूंजीपतियों की टीम इसके पीछे थी और इसी चक्कर में उसने मोंट पेलेरें सोसायटी की स्थापना भी स्विट्ज़रलैंड में करवाई थी.
इस सिद्धांत के प्रचार में पानी की तरह पैसा बहाया गया. अमरीका के साथ ही पडोसी लैटिन अमरीकी देशों से वजीफे दे दे कर छात्रों को बुलाकर पढाया जाने लगा और मोटा पैसा खर्च करके अमरीकी सरकार में लोबीईंग करने के लिए चालाक लोगों को भरती किया जाने लगा, जाहिर है इसके पीछे वही लोग पैसा लगा रहे थे जिनको इसका फायदा होना था, यानी मोंट पेलेरिन सोसायटी के संरक्षक !
मोंट पेलेरिन सोसायटी प्रत्यक्षतः तो बुद्धिजीवियों का सगठन थी लेकिन उसे हर तरह से प्रत्यक्ष और अपरोक्ष फंडिंग उपलब्ध थी जिसके सहारे उससे जुड़े हुए अर्थशास्त्री ट्रिकल डाउन, अनियंत्रित उपभोग को बढाने और मुक्त बाजार के समर्थन वाले शोधपत्र प्रकाशित करते रहे और सरकारों पर दबाव और जनता में मानसिक जनमत तैयार करते रहे. विज्ञापन की दुनिया में उसी समय जमकर इन्वेस्ट किया गया और फोटोग्राफी तथा छपाई में क्षेत्र में उन्नत तकनीको के आ जाने से आकर्षक छवियाँ गढ़ कर भरमाने वाले सन्देश पोपुलर मीडिया में प्रसारित किये जाने लगे.
किसी ड्रिल मशीन के आगे टूल-बिट की तरह लगा हुआ फ्रीडमैन और पीछे से अथाह पैसे की ताक़त, समाज की चेतना में छेद तो बनना ही था, सो बनता ही चला गया. ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह कनाडियन मनोवेज्ञानिक के प्रयोगों की मदद से जन चेतना को नष्ट करने के लिए “झटका तकनीक” का भी विकास इसी बीच संभव हो गया.
नतीजा सांकृतिक, लोकतान्त्रिक चेतना की चट्टानें नष्ट होने लगीं और नव पूँजीवाद, उपभोक्तावाद और मुक्त बाजार की पौध रोप दी गयी जो अब वटवृक्ष बन गयी है.
ट्रिकल डाउन के पोंगा सिद्धांत का राग भारत में मनमोहन सिंह और उनके सिपाही चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने जम कर अलापा और हमें उल्लू बनाया. 1980 के आसपास से यहाँ प्रविष्ट हुए मोंट पेलेरिन के रोबोट्स ने राजनैतिक अस्थिरता और क्षेत्रीय उग्रवाद को बढ़ावा देकर भारत की आर्थिक स्थिति इतनी पेचीदा कर दी थी कि नरसिंह राव की सरकार के आते आते हमारे पास सिर्फ 15 दिन का इम्पोर्ट बिल चुकाने भर का ही विदेशी मुद्रा भण्डार बचा था, जिसकी वजह से मनमोहन और चिदंबरम के सुझाव पर आनन फानन में कर्ज लेना पड़ा और शर्तों के नाम पर हमें मुक्त बाजार को लागू करना मंजूर करना पड़ा.
आज भी मोदी सरकार भी उन्हीं शर्तों को निभाने के लिए मजबूर है और देश भक्ति का जाप करते हुए कड़े कदम के नाम पर ऐसे ही काम कर रही है जो सर्वथा जन विरोधी है और पूंजीपतियों के ही पक्ष में हैं.
उसे हर हाल में अमरीका को खुश रखना है और वह रखेगी... भारत की कसम खा खा कर अमरीका को खुश रखेगी. जहाँ तक मेरी बात है मैं तो खूब खुश हूँ क्योंकि अमरीका मेरा बड़ा भाई है और हमारे प्रिय प्रधान मंत्री उसके साथ हैं.

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