Friday, December 30, 2016

मुक्त बाजार से मुक्ति-1

मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं कि आखिर हमें निरंतर गुलामी की ओर ले जा रही इस अर्थव्यवस्था का समाधान क्या है?
जवाब सीधा है लेकिन आसान नहीं है.
जब पूरे विश्व में धनिक वर्ग सरकारों पर हावी हो और उसी के चंदे से लोकतंत्र में चुनाव होते हों तो आप कैसे परिवर्तन की उम्मीद कर सकते हैं? कोई भी राजनितिक दल आये या जाए इससे सरकार की मूल नीतियों में कहीं कोई फर्क नहीं पड़ने वाला--- वे सदैव व्यापारी वर्ग के ही पक्ष में रहेंगी और उनका औचित्य यह कह कर ठहराया जाता रहेगा कि उद्योग व्यापार बढेगा तो नौकरिया बढेंगी और आपको रोजगार मिलेगा. चाहे इस चक्र में सीमित धरती के लगातार घटते जा रहे प्राकृतिक संसाधनो का कितना भी निर्दयी दोहन हो और लोगों की आजादी किसी भी हद तक गिरवी होती जाए.
वर्तमान व्यवस्था लोकतंत्र और आजादी का स्वांग भरने वाली, अधिकारों के सम्पूर्ण केन्द्रीकरण के लिए काम कर रही व्यवस्था है, और मजे की बात यह है कि इसका विरोध कर रहे संगठन भी केंद्रीकृत संरचना वाले हैं.
ऐसे में विरोध का व्याकरण ही बदलना होगा, छोटे-छोटे स्वायत्त, आत्मनिर्भर और स्थानीय संगठन ही कुछ कर सकते हैं. जितनी ज्यादा ऐसे संगठनों की तदाद बढेगी विरोध कारगर और मजबूत होगा.
ग्लोबलायिजेशन का प्रत्युत्तर लोकलाइजेशन ही है, समृद्धि और खुशहाली का वही वायस बनेगा.
या तो इस ओर प्रयास किये जायें या फिर इंतज़ार किया जाये कि तीव्रतर होता जा रहा मुद्रा-प्रवाह और चुकते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों का यह चक्र अपने फूलने, फैलने और फटने के क्रम में, अगले तीस चालीस सालों में कभी अंतिम बार फटे और फिर इसे फुलाने के लिए न सरकार के पास पैसा हो और न धरती के पास संसाधन---जिससे ये खुद अपनी मौत मर जाए.
जैसे कभी रोमन सभ्यता का अंत हुआ था. वैसे रोमन सभ्यता के अंत के समय जो लक्षण प्रकट हुए थे, वे सभी आज प्रचुर मात्र में दिख भी रहे हैं .
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यहाँ से हम “मुक्त बाजार से मुक्ति” श्रृंखला शुरु कर रहे हैं, इसे केवल पूर्वपीठिका समझें !

Thursday, December 29, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 6

हमारा सानेहा ये है, कि हर दौर-ए-हुकूमत में.
शिकारी के लिए जंगल में, हम हांका लगते हैं.
मुनव्वर राना का यह शेर हर जमाने के उन बुद्धिजीवियों पर एकदम फिट बैठता है जो मिल्टन फ्रीडमैन या फ्रेडेरिक वोन हायक की फितरत के हुए हैं. ये शिक्षण संस्थानों में या तो ख़ास और प्रभावशाली जगहों पर बैठे होते हैं या फिर सत्ता के खिलाडियों द्वारा तैयार करके बिठाए जाते है, हांका लगाने के लिए.
वाजिब टैलेंट के अभाव में ये या तो पुराने प्रचलित अप्रचलित सिद्धांतों का काकटेल तैयार करते हैं या फिर बाजार के चलन को बढाने वाले पोंगा सिद्धांत गढ़ते है, जिसके धुंआधार प्रचार-प्रसार का जिम्मा स्वयं अपने कल्याण के लिए बाजार ही उठा लेता है.
१८४० के आसपास कीर्कगार्द द्वारा तैयार मिटटी से अस्तित्ववाद की पौध का विकास हुआ जिसे नीत्शे और दोस्तोवस्की के बाद सार्त्र ने सींचा. सामुदायिक हितो और जीवन से अधिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात को प्रतिष्ठा देने वाले इस दर्शन के विकास की टाइम लाइन देखिये, ये ठीक ठीक करेंसी आधारित पूँजीवाद के विकास और उसके राजनितिक तंत्र पर कब्जे की टाइम लाइन के साथ फिट बैठती है.
सार्त्र के पहले ही सिसिल रोड्स ब्रिटिश राजघराने के साथ मिलकर अफ्रीका को जमकर लूट चुका था और राजनैतिको पर धनिकों के आधिपत्य का चार्टर तैयार कर चुका था. मरने के पहले उसने अपनी विस्तृत वसीयत में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की रोड्स स्कालरशिप के अलावा एक गुप्त अनाम संगठन बनाने का भी प्रस्ताव दिया था और उसके लिए धन की भी व्यवस्था की थी जिससे विश्व के सभी मुख्या धनिक एक मंच पर आकर इसके लिए प्रभावकारी अभियान छेड़ सकें. बाद में यह संभव भी हुआ और इसी संगठन ने अमरीकी संसद में फ़ेडरल बीसंवी शताब्दी की ऐन शरुआत में फ़ेडरल रिज़र्व बिल पास करवाने में सफलता हासिल की.
फ़ेडरल रिजर्व ही वह बैंको का वह संगठन है जिसके चलते आगे आने वाली अमरीकी सरकारों को वुत्तीय संस्थानों, खासकर बैंको का कर्जदार बनाया जा सका और घाटे के बजट बनने लगे.
अस्तित्ववाद और इस आर्थिक साजिश का अंतर्संबंध चाहे बहुतों के गले न उतरे, लेकिन आर्थिक शक्तियों और बाजार का मुख्य प्रयास हमारी सामुदायिकता को भंग करना और मनुष्य को व्यक्तिवादी बनाना होता है. कारण यह कि सामुदायिकता बाजारू उत्पादों का समाज में स्वच्छंद प्रवेश बाधित करती है. बचत और किफ़ायत के बदले उपभोग बढाने के प्रयास को ऐसे सामाजिक दर्शन और उसपर आधारित साहित्य से अपेक्षित बल मिलता है इसलिए बाजार की शक्तियां ऐसे सिद्धांतों का पोषण भी खूब करती हैं. इनके ही स्कॉलर सभी महत्वपूर्ण पदों पर बैठाये जाते हैं जो आने वाली पीढ़ी के बौद्धिक विकास की दिशा तय करते हैं और इस प्रकार मिलने वाले आकर्षक पारिश्रमिक के बदले शिकारियों की हुकूमत के लिए हांका लगाने का काम करते हैं.
पारंपरिक ज्ञान को नष्ट करना उसे अप्रासंगिक बताना इनका लक्ष्य होता है और बदले में ये जो मॉडल प्रस्तुत करते हैं वह बड़े कर्पोरेटस का हित साधन ही करता है. मिल्टन फ्रीडमैन ने तो वेबलेन की “थ्योरी ऑफ़ लेजर क्लास” और जेरिंग के फैशन की दुनिया के “डिफ्युजन सिद्धांत” से एडम स्मिथ की “वेल्थ ऑफ़ नेशंस” को फ्राई करके जो डिश परोसी उसे खाकर मुट्ठी भर लोग मतवाले हो गए, जब कि बाकी दुनिया का पेट आज तक ख़राब है. सरकारों के साथ साजिश करके पारंपरिक ज्ञान को गलत बता कर कैसे नष्ट किया जाता है इसे जाना हो तो दो डिम पहले पोस्ट किया गया अनुपम मिश्र के विडियो से बढ़िया दूसरा उदाहारण नहीं मिलेगा.
तो इस तरह हांका लगाने वाली जमात और उसके आका मजे करते है, और नाच गाकर समाज को तोड़ने के लिए बौद्धिक, मनोरंजक और हिंसात्मक कार्यवाहियां करते रहते हैं.
टूटा हुआ देश समुदाय, परिवार और उससे मनके की तरह अलग हुआ आदमी बाजार का सबसे आसान शिकार होता है !



Thursday, December 22, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 5

बाजार और उद्योग पूरक हैं एक दूसरे के.
उद्योग में उत्पादन होता है और बाजार में विनिमय.
उद्योग के लिए बाजार जरूरी है, और बाजार के लिए उद्योग; लेकिन मुक्त बाजार ने खुद को उद्योग से भी मुक्त कर लिया और विनिमय की क्रिया वस्तुओं और मुद्रा के बीच होने की बजाय मुद्रा और मुद्रा के बीच होने लगी.
और मुद्रा भी वह जिसका कोई आतंरिक मूल्य नहीं !! क्योंकि अब वह सिल्वर या गोल्ड स्टैण्डर्ड पर नहीं बल्कि केन्द्रीय बैंक (भारत के सन्दर्भ में रिजर्व बैंक) को दी हुई प्रतिभूतियों पर छापी जा रही थी; जिससे उसकी निजी हैसियत सिर्फ एक पोस्ट डेटेड चेक की रह गयी थी. एक ऐसा पोस्ट डेटेड चेक जिसे देने के साथ या उसके बाद खाताधारक को उसके बराबर रुपये अपने खाते में रखना आवश्यक न रह ही गया हो !
1980 के दशक से उद्योग और उत्पादन अब धन पैदा करने का माध्यम न रह कर वित्तीय और कागजी पूँजी के खेल का गुलाम बन कर रह गया और मौद्रिक विनिमय की रस्साकशी पर नाचने को मजबूर हो गया. बैंक और सट्टा बाजार इस खेल के मदारी बन गए क्योंकि सबकी कागजी पूँजी उन्हीं के पास जमा थी और वे ही इसके व्यवहारिक मालिक थे.
जैसा मैंने पहले कहा था कि बैंकिंग से बड़ा घोटाला इस दुनिया में दूसरा न है और न हो सकता है. इस बात की व्याख्या बाद की किसी पोस्ट में अलग से करेंगे अभी फिलहाल इतना समझ लीजिये कि बैंक आपके जमा पैसे को दूसरों को व्याज पर, उससे कहीं अधिक मूल्य की संपत्ति गिरवी रख कर बतौर ऋण देते हैं और दी गयी राशि से अधिक वसूली करके मुनाफा कमाते और आपके जमा पैसे पर व्याज देते हैं. बस इतना सोचिये कि जो व्यवस्था देखने में इतनी सुरक्षित लगती है उसे अपनाने वाले बैंको को फिर घाटा होता ही क्यों है? जाहिर है वे आपके पैसे से कहीं आगे बढ़कर रिस्क लेते होंगे, इसी को नैतिक जोखिम (moral hazard) कहा जाता है.
अमेरिका की बात मैं बार बार इसलिए करता हूँ क्योंकि आज जो अपने देश में होने वाला है या हो रहा है वह अमेरिका में बीस साल पहले हो चुका है और हम उसी के कदमों से जब कदम मिला रहे हैं तो लाजिमी है हमारे यहाँ भी उसी की पुनरावृत्ति होगी. एक बात और नोट कर लीजिये कि पूँजी और पूंजीपति का कोई भी देश या धर्म नहीं होता, वह सिर्फ मुनाफा चाहता है और मुनाफे का ही मुरीद होता है. अगर ऐसा न होता तो अमेरिका अपने मजदूरों और कारीगरों के हाथ और मशीनों का कम छीनकर अपनी सेवा और मैन्युफैक्चरिंग को भारत, बांग्लादेश, पकिस्तान, तायवान और चीन को आउटसोर्स नहीं करता ! वह आम अमरीकी को काम देता .........लेकिन वहां की कंपनियों को सिर्फ मुनाफा प्यारा है, लोग नहीं; इसलिए जब सस्ते मजदूर दूसरी जगह मिल रहे हैं तो अपने देश के लोगों को ज्यादा मजदूरी क्यों देना ?
तो 1980 के दशक में अमेरिकी पूँजीपतियों ने रीगन सरकार पर दबाव बना कर कई तरह की छूट हासिल की. आपको पता होगा ही कि अमरीकी सरकारों में वित्तीय मामलों के सारे महत्वपूर्ण पद भूतपूर्व बैंकिंग अधिकारियों को ही दिए जाते रहे हैं जिनमे गोल्डमन शाक्स, मेरिल लिंच प्रमुख हैं. फ़ेडरल रिज़र्व का चैयरमैन, ट्रेजरी सेक्रेटरी और राष्ट्रपति का आर्थिक सलाहकार पिछले 35 सालों में यहीं से निकले लोग रहते आये है. इसके आलावा वहां भारी संख्या में वित्तीय कम्पनियों के इतने दलाल सक्रिय हैं कि गिनती की जाय तो हर सांसद के पीछे तीन-तीन दलाल निकालेंगे. अब सोचिये कि मुक्त बाजार का सारा पहाडा एक ऐसे ही स्वतंत्र और प्रजातान्त्रिक (?) वातावरण की देन है.
2008 आते-आते अमेरिका में क्या हुआ ये सभी जानते हैं. उसकी अंतर्कथा आप बाद की पोस्ट्स में पढ़ लीजियेगा, लेकिन मोटे तौर पर इतना जान लीजिये कि लाखों अमरीकी बेघर हुए, उनकी नौकरियां छिन गईं और जो बचे रह गए उनकी तनख्वाहें घटाई गयीं. लेकिन सरकार ने अपने फेल होते बैंकों और बीमा कंपनी AIG को बचाने के लिए 700 बिलियन डालर (सत्तर लाख करोड़ डालर !! सोचिये रूपये में कितना ?) अपने खजाने से दिया.
उसे देना पड़ा क्योंकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था को सभी बैंकरों और वित्तीय संस्थानों के असीम लालच ने एक ऐसे मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया था कि इस “बेल आउट मनी” के लिए आनन-फानन में संसद को क़ानून में परिवर्तन भी करना पड़ा. अगर ऐसा न किया जाता तो दूसरी सुबह अधिकाँश अमरीकियों की व्यक्तिगत जमा पूँजी, जो इन बैंकों में जमा थी डूब जाती.
दरअसल वहां के बैंक अपने कुकर्मों के चलते जबरदस्त बीमार थे और मरने की कगार पर थे.
अपने यहाँ भी पिछले दिनों बैंक बीमार थे, साल भर से उन सबका डिपाजिट रेट बुरी तरह घट रहा था जो जून 2016 से अचानक और रहस्यमय ढंग से बढ़ना शुरू हो गया और सितम्बर आने तक किसी किसी का तो 6% तक बढ़ गया !
फिर हमारे प्यारे प्रधानमंत्री एक शाम को उठे और पुराने नोट बंद करने की घोषणा कर दी. हम आप सभी भारतवासी अपना सारा काला धन लेकर बैंको की तरफ भागे और उनका डिपोजिट बढाया. प्रधानमंत्री ने बैंको से हमें अपने मनमुताबिक पैसे निकाल सकने के हमारे मूल अधिकार भी ख़त्म कर दिए.... जो साफ़ तौर पर हमारे संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों का हनन है.
ऐसा तो किसी आपातकाल में ही किया जाता है, जब युद्ध की स्थिति हो या फिर मुद्रा स्फीति बहुत अधिक बढ़ गयी हो. कौन सा आपातकाल था मैं उसका पता लगा रहा हूँ लेकिन लग नहीं रहा. आपको लगे तो जरा बताईये.

Monday, December 19, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 4

जैसे किसी पुजारी का लौंडा जुआरी हो जाय वैसे ही मिल्टन फ्रीडमैन ने अपने गुरु एडम स्मिथ के किये धरे पर पानी फेर दिया और उनके पूँजीवाद के सिद्धांत को उलट कर सर के बल खड़ा कर दिया. जैसा मैंने कहा कि फ्रीडमैन जरा बड़ा बुद्धिजीवी था तो उसको अपने को साबित करने के लिए कुछ अलग कर दिखाना भी था, इसी चक्कर में उसने एक बड़ा घपला किया.
अनैतिक और फंदेबाज वकील जैसे किसी मामले में अपने अनुकूल क़ानून न होने पर किसी और सन्दर्भ के क़ानून को इम्पोर्ट करके अपनी दलील पेश करते हैं वैसे ही फ्रीडमैन ने ब्रिटिश न्यायविद रुडोल्फ वोन जेरिंग के ट्रिकल डाउन नामक कल्चरल डिफ्युजन के सिद्धांत को बाजार पर लागू करने की साजिश की और उसे आर्थिक सन्दर्भ में लागू करने की योजना बनायी. चूँकि यह सिध्दांत मूलतः खानपान और फैशन की दुनिया का सिध्दांत है, और १८९० में प्रतिपादित होने के पहले भी सार्वभौमिक व्यवहार में, तभी से प्रचलित था जब से समाज में परजीविता का समावेश हुआ, इसलिए इसको आर्थिक जगत में भी स्वीकार करवाने में फ्रीडमैन की गैंग को कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुयी.
दिक्कत तो यूँ भी नहीं होनी थी क्यूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद जर्मनी को बनाने में मोटी कमाई कर चुकी अमरीकी पूंजीपतियों की टीम इसके पीछे थी और इसी चक्कर में उसने मोंट पेलेरें सोसायटी की स्थापना भी स्विट्ज़रलैंड में करवाई थी.
इस सिद्धांत के प्रचार में पानी की तरह पैसा बहाया गया. अमरीका के साथ ही पडोसी लैटिन अमरीकी देशों से वजीफे दे दे कर छात्रों को बुलाकर पढाया जाने लगा और मोटा पैसा खर्च करके अमरीकी सरकार में लोबीईंग करने के लिए चालाक लोगों को भरती किया जाने लगा, जाहिर है इसके पीछे वही लोग पैसा लगा रहे थे जिनको इसका फायदा होना था, यानी मोंट पेलेरिन सोसायटी के संरक्षक !
मोंट पेलेरिन सोसायटी प्रत्यक्षतः तो बुद्धिजीवियों का सगठन थी लेकिन उसे हर तरह से प्रत्यक्ष और अपरोक्ष फंडिंग उपलब्ध थी जिसके सहारे उससे जुड़े हुए अर्थशास्त्री ट्रिकल डाउन, अनियंत्रित उपभोग को बढाने और मुक्त बाजार के समर्थन वाले शोधपत्र प्रकाशित करते रहे और सरकारों पर दबाव और जनता में मानसिक जनमत तैयार करते रहे. विज्ञापन की दुनिया में उसी समय जमकर इन्वेस्ट किया गया और फोटोग्राफी तथा छपाई में क्षेत्र में उन्नत तकनीको के आ जाने से आकर्षक छवियाँ गढ़ कर भरमाने वाले सन्देश पोपुलर मीडिया में प्रसारित किये जाने लगे.
किसी ड्रिल मशीन के आगे टूल-बिट की तरह लगा हुआ फ्रीडमैन और पीछे से अथाह पैसे की ताक़त, समाज की चेतना में छेद तो बनना ही था, सो बनता ही चला गया. ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह कनाडियन मनोवेज्ञानिक के प्रयोगों की मदद से जन चेतना को नष्ट करने के लिए “झटका तकनीक” का भी विकास इसी बीच संभव हो गया.
नतीजा सांकृतिक, लोकतान्त्रिक चेतना की चट्टानें नष्ट होने लगीं और नव पूँजीवाद, उपभोक्तावाद और मुक्त बाजार की पौध रोप दी गयी जो अब वटवृक्ष बन गयी है.
ट्रिकल डाउन के पोंगा सिद्धांत का राग भारत में मनमोहन सिंह और उनके सिपाही चिदंबरम, मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने जम कर अलापा और हमें उल्लू बनाया. 1980 के आसपास से यहाँ प्रविष्ट हुए मोंट पेलेरिन के रोबोट्स ने राजनैतिक अस्थिरता और क्षेत्रीय उग्रवाद को बढ़ावा देकर भारत की आर्थिक स्थिति इतनी पेचीदा कर दी थी कि नरसिंह राव की सरकार के आते आते हमारे पास सिर्फ 15 दिन का इम्पोर्ट बिल चुकाने भर का ही विदेशी मुद्रा भण्डार बचा था, जिसकी वजह से मनमोहन और चिदंबरम के सुझाव पर आनन फानन में कर्ज लेना पड़ा और शर्तों के नाम पर हमें मुक्त बाजार को लागू करना मंजूर करना पड़ा.
आज भी मोदी सरकार भी उन्हीं शर्तों को निभाने के लिए मजबूर है और देश भक्ति का जाप करते हुए कड़े कदम के नाम पर ऐसे ही काम कर रही है जो सर्वथा जन विरोधी है और पूंजीपतियों के ही पक्ष में हैं.
उसे हर हाल में अमरीका को खुश रखना है और वह रखेगी... भारत की कसम खा खा कर अमरीका को खुश रखेगी. जहाँ तक मेरी बात है मैं तो खूब खुश हूँ क्योंकि अमरीका मेरा बड़ा भाई है और हमारे प्रिय प्रधान मंत्री उसके साथ हैं.

Sunday, December 18, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 3

उस दिनअमेरिका ने आशीर्वाद वाली मुद्रा में मुझसे कहा था--
“प्यारे जिगर के टुकड़ों पस्त नहीं मस्त रहो, हम और हमारे बंटाईदार लगे हुए हैं तुम्हारी खिदमत में !”
फिर उसने आखिरी बात जोड़ी--
“वैसे तुम्हारी पस्ती में ही मस्ती और मस्ती में ही पस्ती है.
तुम्हारी मस्ती और पस्ती आपस मिलकर एकमेक हो गए है,
जैसे आत्मा परमात्मा में मिलती है.
सही पूछो तो जीने का मजा ही पस्त होकर मस्त होने में है !”
अमरीका के इस आखिरी वक्तव्य से मुझे सच्चे ज्ञान की बू आने लगी तो मैं अलर्ट हुआ. मुझे अपने जम्बूद्वीप के वाल्मीकि बाबू का जीवन याद आया, जो पहले तो डकैत थे और बाद में चल कर साधू हुए और उसके बाद एक मरती हुयी चिड़िया देख कर पंडित भी हो गए! खैर, मैं पिंड छुडाने की गरज से वहां से खिसक लिया.
मेरा क्या है कि मैं शुद्ध शाकाहारी कसाई हूँ जो सोमवार से शुक्रवार तक रोज अपनी दूकान पर बैठ कर झटके से भेड़ें काटता है और उन्हें हलाल मानकर हजम कर लेता है! स्टॉक ट्रेड एक ऐसी ही दुनिया है जहाँ न कुछ बनता है, न बिकता है. यह नव पूँजीवाद के दौर का हवा बेचने, हवा ही खरीदने, सीमित पूँजी के साथ असीमित लालच, उसी अनुपात की हिम्मत और डर लेकर टहल रहे लोगों की पूँजी छीन कर उन्हें दिगंबर कर देने का उपक्रम है. कुल मिलाकर भोले भाले लोगों की मानवीय कमजोरियों को माध्यम बनाकर उनका शिकार करने की बड़ी आराम दायक शिकारगाह! चूँकि अमरीका को शिकार बहुत पसंद है इसीलिए मेरा उससे भाईचारा भी बनता है, वह रिश्ते में में मेरा बड़ा भाई है.
तो मेरे इसी बड़े भाई के यहाँ एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी पैदा हुआ, नाम था मिल्टन फ्रीडमैन. यह शिकागो विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढाता था. जमाना था द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का, जब बाजार में मंदी आई थी लोगों के पास न काम था, न पैसा.
यहाँ एक बात और बता दूँ कि मंदी उस दौर को कहते है जब समाज में किसी बड़ी अस्वाभाविक घटना की वजह से अचानक या फिर किसी ख़राब व्यवस्था के चलते जनता की जेब का सारा पैसा खिंच कर कुछ इने गिने लोगों के पास कम हो जाये नतीजतन जनता के पास कुछ और खरीदने सकने की शक्ति न रह जाये. ऐसी हालत में जनता चाहे अपना काम चला भी ले लेकिन बाजार के शिकारी चिंतित हो जाते हैं, और अपने पास के पैसे को कर्ज के रूप में बांटना शुरू कर देते हैं, की भाई लो हमसे लो, दबा कर खर्च करो, बाद में दे देना.
तो मिल्टन फ्रीडमैन था बड़ा बुद्धिजीवी! बुद्धिजीवी दरअसल हमारी आप की ही तरह आहार, निद्रा, भय और मैथुन के सहारे जीने वाला एक जोड़ी टांग, हाथ, आँख, कान वाला ही इंसान होता है जिसको यह साबित करना होता है कि वह एक अजूबा है! वह कुछ ऐसा कह या कर सकता है जो हम आप नहीं कर सकते. अपने को अजूबा साबित करने के हल्ले में वह जनता के सामाजिक अनुभवों और तमाम पुराने व्यवहारिक सिद्धांतों को घोंटता-पीसता, कपडछान करता रहता है. अब चूँकि वह कोई और जीवनोपयोगी उत्पादन नहीं करता तो ऐसे में उसका खर्चा सरकार या तो फिर मोटी थैली वाला कोई शिकारी-व्यापारी उठाता है.
तो मिल्टन फ्रीडमैन बड़ा बुद्धिजीवी तो था लेकिन यह उसको उतने ही बड़े ढंग से साबित भी करना ही था! इसके लिए उसने एक समाज विज्ञान के सिद्धांत को पकड़ कर अपने पूर्ववर्ती और अर्थशास्त्री आडम स्मिथ के थैले में ठूंस दिया और कहीं सिद्धांत बाहर न आ जाए इसके लिए ऊपर से जम कर सुतली लपेट दी. उसकी इस कसरत का खर्चा शिकागो विश्वविद्यालय तो उठा ही रहा था साथ में द्वितीय विश्वयुद्ध में मोटा मुनाफा काट चुके व्यापारियों ने भी उसके लिए तगड़ी व्यवस्था की और यूरोप (आस्ट्रिया) के फ्रेडेरिक वोन हायक के साथ उसे मिलाया, एक सोसाईटी बनायी जिसका काम था आदम स्मिथ के सिद्धांतों को डबल फ्राई करके सरकारों को खिलाना! (देखिये--मोंट पेलेरिन के रोबोट्स)
दरअसल रूजवेल्ट का लोगों को भारी मात्रा में सरकारी नौकरियों पर लोगों रखना बाजार के शिकारियों को खल रहा था, क्योंकि इससे कालांतर में जाकर पब्लिक सेक्टर को मजबूत होना था, जिसको कमजोर करने का सगठित प्रयास वे पिछले तीस-चालीस साल से कर रहे थे. उन्हें फ़ेडरल रिज़र्व बिल और फ्रैक्शनल बैंकिंग के बहाने सरकार को कब्जे में लेने के लिए किये गए प्रयासों पर पानी फिरता नजर आया. इसलिए उन्होंने फ्रीडमैन को आगे करके रूजवेल्ट के प्रयास के विरुद्ध अभियान चलाया.
और फिर फ्रीडमैन ने एडम स्मिथ के क्लास्सिकल पूंजीवाद के सिद्धांतों को डबल फ्राई करके सुतली बम बनाया और रूजवेल्ट के खिलाफ दागना शुरू कर दिया ....

Thursday, December 15, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा- 2

ब्रिटिश भाई लोग मिटटी में ही थोड़ी खाद मिला गए थ, उसके बाद काम तो जरा धीमा हुआ लेकिन नतीजा आप देख ही रहे हैं कि १९४७ वाले गुजराती फ़कीर के जमाने को हमने २०१६ वाले गुजराती फ़कीर के जमाने में कैसे बदला?"
कल की पोस्ट पढ़ कर अमरीका मुस्कराया, मुझको बुलाया और मेरी नादानी पर पर एक प्यार भरी चपत लगाते हुए मुझे जो समझाया वो आपको बताता हूँ, जान लीजिये, मुझे अभी तो अमरीका की बातों में दम लगता है. आज दिन भर उसके समझाए को सोचता हूँ, आज दिन में अगर उसकी बताई बातों का दम निकल गया तो कोई और राग अलापूंगा, नहीं तो आप सब के साथ मैं भी अमरीका की जय बोलूँगा. तो यह है जो उसने मुझे समझाया ---
दरअसल खुशहाली बांटने, गरीबी भगाने, लोगों को गुलामी से आजाद करने और पूरी दुनिया को गुलिस्तान बनाने के पीछे हम अपना सब कुछ दांव पर लगा देते है. जन कल्याण की भावना से ओत प्रोत हमारे जैसा औघड़ दानी देश धरती पर दूसरा कौन है? कोई बताये हमारे नेता, व्यापारी, दलाल औए यहाँ तक कि हमारी फिल्मो के हीरो भी लगातार दुनिया को बचाने और उन्हें आतंक और गुलामी से मुक्त करने में लगे रहते हैं.
लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं जिन्हें यह हजम नहीं होता, वे हमारी सहायता न लेते, न लेना चाहते और एक रोटी और एक लंगोटी में, अपने जंगल जमीन और भेड बकरी के बीच मस्त पड़े रहते. यही अस्ल दुश्मन हैं. लेकिन चूँकि हम अपने दुश्मनों से प्यार करता है और उनसे तब तक नहीं लड़ता जबतक कि वे खुद ही, पहले हम को, हमारे ही दिए गए हथियारों से मारने धमकाने पर न उतर आयें.
जरा देखो तो आँख उठाकर आपको आदिवासी क्षेत्रों ऐसे लोग मिल जायेंगे हिन्दुस्तान में, अफ़्रीकी मुल्कों में, लैटिन अमरीकी देशों में, जो अपनी एक रोटी और एक लंगोटी के साथ मन भर स्वचालित हथियार उठाये हुए अपना दुश्मन खोजते हुए घूम रहे हैं और उसी हल्ले में अपने जैसे ही लोगों को मार रहे हैं. बदले में दूसरी तरफ के लोग भी वही काम कर रहे हैं, बस फर्क यही है कि दूसरे के पेट में सरकारी रोटी और तन पर सरकारी वर्दी है. चिड़ियों के शोर के बीच जब बमों का मोहक अट्टहास और गोलियों की हंसी फूट पड़ती है तो समझो हमारी जन कल्याण परियोजना के लिए जमीन जोती और तैयार की जा रही है. ऐसा हम उस जमीन पर करते है जहाँ अपने बंटाईदार पहले से तैनात हैं--याद तो होगा मोंट पेलेरें के रोबोट्स के बारे में?
वोन हायक और फ्रीडमन हमारे आदमी थे, स्विट्ज़रलैंड में मिले, सलाह मशविरा किया उन्नत खेती के बारे में. अब अपने ही मुंह से क्या अपनी तारीफ़ करना! फ्रीडमन इतना सयाना कि ऐडा स्मिथ के क्लासिकल एकोनोमिक्स का हेतना स्वादिष्ट कबाब बनाया और ऊपर से वो फैशन में रुदोफ़ वों जेर्रिंग वाली थ्योरी “ट्रिकल डाउन इफ़ेक्ट” की “थ्योरी ऑफ़ लेजर क्लास” में घोंट कर ऐसी चटनी तैयार की, कि साली दुनिया आज तक अंगुली चाट-चाट कर वाह वह कर रही है.
पर कुछ चट्टाने सख्त होती हैं तो वहाँ खुद जाना पड़ता है, अब खेती किसानी में कहाँ तक हाथ बचाया जाये? इधर मध्यएशिया वैसे ही पठारी इलाका है, इसलिए ससुरे बंटाईदार लेते ही नहीं और दूसरी तरफ रूसी डकैतों की घुसपैठ, दंगल जरा ज्यादा ही हो गया, लेकिन कसम से मजा बहुत आया! अब देखो सारे शांत हैं, खुश हैं, देखो पुल, सड़कें, बिल्डिगें--- लगे हैं अपने लोग लगे हैं काम हो रहा है, फिकर नॉट !
अब क्या है कि इधर हिन्दुस्तान को पाकिस्तान से उलझाए रख कर मत्थे की सिंकाई तो बहुत दिनों से चालू थी, बीच में थोडा पंजाब भी गरमाया, उधर पैरों की तरफ से काम पर लोगों को लगाया, बीच में अपने बंटाईदार थे ही, जमीन भी उतनी सख्त नहीं थी. दरअसल मुल्क आजाद करने के साथ ब्रिटिश भाई लोग मिटटी में ही थोड़ी खाद मिला गए थ, उसके बाद काम तो जरा धीमा हुआ लेकिन नतीजा आप देख ही रहे हैं कि १९४७ वाले गुजराती फ़कीर के जमाने को हमने २०१६ वाले गुजराती फ़कीर के जमाने में कैसे बदला ? :)
वैसे दाढ़ी-वाढ़ी रखकर लगते तो तुम समझदार हो लेकिन हो बिलकुल बौड़म !......इतना भी नहीं पता कि जैसी जमीन वैसी जुताई! जहाँ हमें जमीन के नीचे से गरीबी दूर करनी है वह हम जमीन पर उतरते हैं और जहाँ जमीन के ऊपर से गरीबी दूर करनी है वहाँ हम रिमोट से थोडा सा सिंकाई करते है और काम हो जाता है, अफगानिस्तान और ईराक-ईरान के इलाके पठारी हैं तो वहां जरा जमीन ज्यादा तोडनी पड़ी, तुम्हारे यहाँ तो पहले से ही खाद डालकर एक बार जुताई हो चुकी है !
तो मेरे प्यारे जिगर के टुकडे! पस्त नहीं मस्त रहो, हम और हमारे बंटाईदार लगे हुए हैं तुम्हारी खिदमत में !

Wednesday, December 14, 2016

मुक्तबाजार: गुलामी का रंगीन फंदा-1

पहले गरीबी ढूंढो. न मिले तो जमीन में रोपो, पैदा करो. रुको पहले मुल्क में थोडा अशांति रोपो... जाती, धर्म, क्षेत्र किसी भी नाम पर. लोग फिर भी न माने तो अपने इतने NGO और फाउंडेशन किस लिए हैं इन्हें लगाओ... फुटकर जन कल्याण करते करते कुछ लोगों को पटायें किसी भी आधार पर गुटबंदी को किकस्टार्ट कराएं.

अमरीका का बस चले तो दुनिया में कोई गरीब न रहे, वह सब देशों में फ्लाईओवर, शौपिंग माल, चकाचक रेलें, लम्बी कारें, हर आदमी को उपलब्ध करा दे, फिर चाहे यह किरपा झेलने की लोगों में सामर्थ्य और इस धरती पर जगह हो या नहीं. आखिर भीषण किस्म से दयालु अमरीका करे तो क्या करे? दिल से मजबूर है !
जब कोई गरीब भूखा सोता है तो अमरीका का दिल रोता है, और जब रोते-रोते थक जाता है तो वह उठकर उस देश को कर्ज दे देता है और जो कर्ज लेने से इनकार कर दे, उस पर बम गिरा देता है.
सीआईए तो यूँ ही दुनिया के मोहल्ले में बदनाम घर के लड़के का नाम है, असली काम NSA अंजाम देता है. शीर्ष के शिक्षा संस्थानों से प्रतिभावान, जवान और महत्वकांक्षी लोगों को चुन कर, उनमें से भी सर्वोत्तम लोगों को अपने विशेष अभियान में भरती करता है. क्या है ये अभियान? बताते हैं, थोडा रुकिए.
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एक आईटम होता है --आतंकवाद! पर ये कहाँ से आता है भाई? काहे को कोई भी किसान या कारीगर का अधपढ़ छोरा कुछ सनकी और विक्षिप्त लोगों का साथ देना क़ुबूल कर लेता है बजाय देश के कानून का साथ देने के? और उन सनकी और विक्षिप्त लोगों को देश की सरकारें और सनसनी मीडिया फर्म्स लम्बे समय तक जिलाए रख कर क्यों हीरो बनती हैं भाई? मीडिया फर्म्स मैंने इसलिए कहा कि वे फर्म्स ही हैं, सामाजिक जिम्मेदारी मुक्त, मुनाफा केन्द्रित, नए महत्वकांक्षी और स्पर्धाप्रिय शिक्षित दिमागों का जूस निकाल कर उन्हें वेजिटेबल बनाने वाली चक्कियां!
बिजनेस है भाई! पेट का सवाल है. गरीबी मिटानी है दुनिया की... सबको डेमोक्रेसी देनी है अपनी वाली.
अकेले अमरीका के पास इतनी डेमोक्रेसी है की पूरी दुनिया को उसमें चार बार लपेट दे तभी एक थान बची रह जाय.
अब चक्कर ये है कि गरीबी मिटे कैसे ? तो ऐसा करो कि पहले गरीबी ढूंढो. न मिले तो जमीन में रोपो, पैदा करो.
रुको पहले मुल्क में थोडा अशांति रोपो... जाती, धर्म, क्षेत्र किसी भी नाम पर. लोग फिर भी न माने तो अपने इतने NGO और फाउंडेशन किस लिए हैं इन्हें लगाओ... फुटकर जन कल्याण करते करते कुछ लोगों को पटायें किसी भी आधार पर गुटबंदी को किकस्टार्ट कराएं.
“अशान्ति होगी तो अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी, घाटा होगा तो कर्ज भी होगा और फिर तुरंत हम कल्याण करने पहुँच जायेंगे. ...........लेकिन देखो यार फर्स्ट थिंग फर्स्ट .....पहले थोड़ी सी अशांति... अरे बस जरा सा ! अरे लो रखो तो... शुरू तो करो ... यार गजब नेता हो... अरे कुछ बनाओ तुम भी ! ऐसे बैठे बैठे पागुर करते रहोगे ??”
NSA के चुनिन्दा दिमाग कांटेक्ट और फैसिलिटी के नाम पर कानूनी ढंग से देशों में बसाये जाते हैं दस-बीस साल के असाइनमेंट पर, उनका काम स्थानीय जमीन को अशांति के लिए तैयार करना और सरकारों में लोबीईंग के माध्यम से ऐसे निर्णय करवाना होता है जो अमरीकी कोर्पोरेशनस को वहां सबने और फैलने का मौका दिलवाएं.
यदि यह काम जन संपर्क से न हुआ तो लॉन्गटर्म कार्यक्रम है ही ! अशांति की खेती शुरू कर देंगे.
चिली, अलसल्वाडोर, पेरू, ब्राज़ील में एक एक कर यही सब हुआ! एक एक करके सबकी गरीबी मिटा दी गयी, और आज वह कोई भी भूखा, नंगा या उदास नहीं है..... भारत में भी कार्यक्रम चलाया जा रहा है, यहाँ भी खुशहाली जल्दी आएगी.

आधुनिक सभ्यता का चरम

दर्शक बनकर देखिये जरूर, लेकिन बुनियादी मानवीय मूल्यों को क्षरित न होने दीजिये. अपनी नैतिकता की रक्षा जरूर कीजिये. हर सभ्यता में मूल्यों और अकांक्षाओं का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है, लेकिन हर सभ्यता के चरम काल में उच्चवर्ग सर्वथा नैतिकता विहीन और मूल्यरहित हो जाता है.
जो कुछ मैं ब्लॉग या फेसबुक पर लिखता हूँ वे सभी पूँजी के साजिशी इतिहास पर मेरी आने वाली पुस्तक से उद्धृत संक्षिप्त झलकियाँ हैं, इसलिए कभी-कभी विषयों का तारतम्य न मिले तो पोस्ट्स को आपस में जोड़ कर आप खुद ही असली कहानी तक पहुँच सकते हैं.
हो सकता है आपको मेरे लिखे में कभी घटिया जासूसी लेखकों जैसा भी कुछ लगे जो आसानी से यकीन करने लायक हो, तब भी अगर उसे, आप सत्ता के संघर्ष और लालच के खेल से जोड़ कर देखेंगे तो स्वाभाविक लगेगा. पोस्ट्स में विस्तार की एक सीमा होती है, बहुत बार, अलग लाग कारणों से सबूतों को अपलोड नहीं किया जा सकता, हाँ बाद में ब्लॉग में उपलब्ध करा दिया जायेगा.
पुस्तक पूरी होने में अभी साल भर से ऊपर का समय लग सकता है और जैसे-जैसे मैं इसके अलग-अलग अनुच्छेदों पर काम कर रहा हूँ मुझे लगने लगा है की सत्य वास्तव में कल्पना से भी विचित्र और नाकाबिले यकीन होता है. क्योंकि काल्पनिक कहानियाँ लिखते समय लेखक अपने झूठ में दुनिया का झूठ मिक्स करके ऐसा प्लाट रचता है जो असली जैसा लगे और जिस पर लोग आसानी से यकींन कर लें. लेकिन जब आप सच खोजने निकलेंगे तो आपको धुंध के पार देखना पड़ेगा.,,, और अक्सर जो दिखाई देगा वह सामान्य तो नहीं ही होगा, क्योंकि रोजमर्रा की जिंदगी में हमें अभिनय देखने की आदत हो गयी है.
सच को खोजते समय ध्यान रखना चाहिए कि हर प्रत्यक्ष घटना का एक नेपथ्य होता है, सामने स्टेज पर चल रहे अभिनय के पीछे, बैकस्टेज की गयी तैय्यारी और अभिनेताओं के असल रूप तक पहुँचना होता है, क्योंकि उद्योग, व्यापार, राजनीति और सामाजिक जीवन में लोग एक से एक अभिनय में विन्यस्त हैं और आपको पैसा वसूल टाइप का मनोरंजन दे रहे हैं. उनका उद्देश्य आपकी समझ को विभाजित करना, भटकाना, मूल्यों को प्रभावित करना और उसकी ब्रांडिंग करना है.
इसलिए दर्शक बनकर देखिये जरूर, लेकिन बुनियादी मानवीय मूल्यों को क्षरित न होने दीजिये. अपनी नैतिकता की रक्षा जरूर कीजिये. हर सभ्यता में मूल्यों और अकांक्षाओं का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है, लेकिन हर सभ्यता के चरम काल में उच्चवर्ग सर्वथा नैतिकता विहीन और मूल्यरहित हो जाता है.
रोमन सभ्यता के पतन के समय भी यही हुआ था जो सब आज हो हो रहा है.
सभ्यताएं जब मिटती हैं तो बहुत सा कोलेटेरल डैमेज साथ होता है.
मत भूलिए कि डायनासोर मिट गए, काक्रोच अभी भी जिन्दा हैं, आगे भी रहेंगे और वे डायनासोर से ज्यादा पुराने हैं.
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ऊपर अभी जो मैंने मानवीय मूल्यों के क्षरित न होने देने और और अपनी नैतिकता की रक्षा करने की बात आपसे की थी उसे समझाने का काम मुझसे अधिक अच्छी तरह से मेरे मित्र नीतीश के. एस. ने एक बहुत बढ़िया उदहारण देते हुए कर दिया है, आपको जरुर पढना और मानना चाहिए अपने को इंसान बनाये रखने में इससे आपको बहुत मदद मिलेगी---
कभी ग़ौर करियेगा, सड़क के कुत्ते कभी किसी लंगड़े या टूटी टांग वाले कुत्ते से लड़ते नहीं हैं। बल्कि वो उसके लिए खाने में एक हिस्सा छोड़ देते हैं। विकलांग गाय-बैल को आवारा बैल -सांड़ सींग नहीं मारते। कूड़ा घर में थोड़ा खिसक कर उसके लिए भी खाने की जगह बना देते हैं। बन्दर कभी भी चोट खाये बन्दर को किनारे नहीं रखते, बीच में रखते हैं। 
अब विकलांगों के बारे में इंसानों का नजरिया याद कीजिये। स्टेशन पर भीख मांगते हुए, चौराहे पर गंदे संदे हाल में पड़े हुए, अस्पतालों में लाचार ज़िन्दगी को कभी सामान्य नहीं माना। कभी अपने साथ भीड़ में शामिल नहीं करना चाहा। इसलिए नहीं कि हम उनकी परवाह करते है और उन्हें भीड़ की गति में ताल मिलाने में असुविधा होती, अतः उन्हें छांट दिया गया, बल्कि इसलिए की हम उन्हें घृणा की नज़र से देखते हैं। दान करना पुण्य का काम नहीं, पुण्य के लिए किया गया काम है। भीख भी उन्हें असामान्य मान कर उनके ज़रिये पुण्य कमाने की नीयत से दी जाती है। वरना कोई उन्हें सड़क तक पर न रहने दे। भेड़िये और लोमड़ियों में समूह के घायलों के लिए खाना ले कर आते हैं शिकार पर जाने वाले। शेर भी ऐसा ही करते हैं। हम विकलांगों को बस नया नाम दे देते हैं, आरक्षण दे देते हैं। बस वो सामान्यता नहीं दे पाते जिसकी उन्हें ज़रूरत है। आख़िर क्यों नहीं उनसे एक सामान्य इंसान की तरह बर्ताव कर पाते हैं हम? क्यों हमारे लिए किसी के हाथ-पांव उसके बर्ताव से अधिक महत्वपूर्ण हैं? क्यों हम उसको उतनी इज़्ज़त नहीं दे सकते जितनी किसी बिना अक्ल वाले तक को दे देते हैं? उन्हें हमारे बर्ताव में बदलाव की ज़रूरत है। हमारी भीख , हमारी मदद या सहानुभूति की नहीं। अगर हम ऐसा करते हैं तो विकलांग हम हैं वो नहीं।
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अब इसी सन्दर्भ में Arya Guddu की यह कविता-- 
बेबकूफ आदमी या फिर अजीब आदमी
जैसी कोई चीज कहीं नहीं पायी जाती . दरअसल होता यह है कि कुछ लोग उम्मीद करते हैं दूसरों से कुछ ज्यादा धैर्य , कुछ ज्यादा ध्यान, कुछ ज्यादा उदारता और कुछ ज्यादा समझदारी की .

Monday, December 12, 2016

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--8: भारत में मध्यम गति के झटकों की शृंखला

अगर रोटी सेंकनी है तो तवा तो गर्म रखना पड़ेगा, और रोटी जल न जाए  इसलिए बीच बीच में तवा ठंडा भी होता रहना चाहिये और उसपर तेल पानी के छींटे भी पड़ते रहने चाहिए.


संघ, उसके सहयोगी संगठन और भाजपा इसी तर्ज पर मुद्दे पैदा करते या उन्हें गोद लेते हैं, इस्तेमाल करते हैं और फिर उनकी उपयोगिता ख़त्म हो जाने पर उन्हें बेवफा प्रेमी की तरह छोड़ देते हैं. अपने नेताओं के साथ भी वे यही करते हैं, जिनके उदहारण आप वर्त्तमान के मर्तबान में ही झाँक कर देख सकते हैं.


इनकी धुन नहीं बदलती पर गाने बदलते रहते है.


चूँकि संघ और भाजपा अपने किसी भी उपक्रम में प्रयोगधर्मी या मौलिक नहीं हैं और केवल अज्मूदा तकनीकों को ही इस्तेमाल करते हैं इसलिए 1940 से लेकर अब तक विश्व के अलग अलग हिस्सों में दर्जनों बार आजमायी गयी झटका तकनीक को उन्होंने अपने लिए मुफीद पाया है .


अगर आप झटका शास्त्र--1 से 7 तक पढ़ चुके हैं तो उनका प्रभाव और अभीष्ट अब तक समझ चुके होंगे. यदि नहीं तो कृपया समय निकाल कर उसे पढ़ें और जानें की राजनेताओं द्वारा जन चेतना को कुंद या भ्रमित करने वाले झटको का प्रयोग तवा गर्म करने के लिए और वर्गीय या सांस्कृतिक श्रेष्ठता अथवा देशभक्ति के लासे को गर्मी से पैदा हुयी जलन को शांत करने के लिए कैसे किया जाता है; जिससे समाज में उत्तेजना व्याप्त रहे, वास्तविक घटनाएं खबर न बन सकें और झटके, उत्तेजना और लासे के घालमेल के पीछे उनका अपना मकसद पूरा होता रहे. राम मंदिर, लव जेहाद, कश्मीर, सेना, पाकिस्तान और अब नोट बंदी ये सब ऐसे ही झटकों के ही नमूने हैं.... जो पहले लाये गए और बाद में भुलाये गए .


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किसी सुघड संगीत, चित्र या किसी भी कार्ययोजना की संरचना की भांति के संघ/भाजपा की कार्यशैली के भी तीन आयाम हैं.--- पृष्ठभूमि (background), मध्यभाग (middle ground) और मुख्य आकर्षण (highlight).


पृष्ठभूमि के तौर पर उसने 1952 से ही गोरखपुर में सरस्वती शिशुमंदिर की शुरुआत की, ध्यान देने की बात है इसी गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना 1923 में और गीता विद्यालय की स्थापना 1946 में कुरुक्षेत्र में हो चुकी थी। बाद में सरस्वती शिशु मंदिरों का जाल बढ़ता गया, समितियां बनती गयीं, (पंजाब एवं चंडीगढ़ में सर्वहितकारी शिक्षा समिति और हरियाणा में हिन्दू शिक्षा समिति बनी) 1977 में विद्या भारती की स्थापना दिल्ली में हुयी और सभी प्रदेश समितियां विद्या भारती से सम्बद्ध हो गईं।


पृष्ठभूमि का यह गठन नीचे से ऊपर की और किया गया.. जिसका मकसद केवल एक था-- चुपचाप समाज हित और संस्कृति रक्षा की आड़ में संकीर्ण हिन्दू विचारधारा को पोषित करना और नयी पौध के बीच में उसका संचार करना. वास्तव में यह संस्कृति रक्षा नहीं थी और न है बल्कि अपनी प्रतिगामी सोच के लिए नन्हे रोबोट्स तैयार करने का प्रयास है, जैसा मोंट पेलेरिन सोसाइटी और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की रोड्स स्कोलार्शिप करती है.
यहाँ समय नोट कीजिये ....1977 में ही जनसंघ ने जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के माध्यम से केंद्र में सरकार के प्रमुख घटक के रूप में जगह बनायीं और 1977 में ही विद्या भारती की स्थापना करके विभिन्न प्रदेशों में फैली शिक्षा समितियों को इससे जोड़ा गया जिससे छात्रों के पाठ्यक्रम और विषयवस्तु पर केन्द्रीय नियंत्रण रखा जा सके और उन्हें मनमर्जी इतिहास और दूसरे तथ्य पढाये जा सकें...
आज यह एक मजबूत पृष्ठभूमि है जिस पर तस्वीर का मध्यभाग और मुख्य आकर्षण टिका है...पृष्ठभूमि ऐसे मष्तिष्क और ऐसी आबादी तैयार कर रही है जो मध्यभाग में प्रायोजित झटकों को न केवल प्रसारित करें बल्कि उनके दुष्प्रभावों की न्युट्रलायिज करने में भी मदद करें.
मुख्यधारा में आज बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों से लेकर प्रोफेशनल लोगों तक में उनकी शिशुमंदिर की शिक्षा की छाप देखी जा सकती है. ये ऐसा पतनशील भजनशील मध्य वर्ग बनाते हैं जो किसी तथ्य या घटना की गहराई में गए बिना अपना एक वैचारिक सांचा रखता है और हर चीज पर तुरंता प्रतिक्रिया देने को तैयार बैठा रहता है और हर चीज के तुरंत हल की मांग करता है.
मूर्ख, बेसब्र और भावनात्मक आवेश से सिंचित जमीन में झटकों की खेती आसान और उपजाऊ होती है. देखिये कि कैसे 1977 से शुरु होकर यह कार्यक्रम एक दशक में इतना परिपक्व हो चुका था कि  बाबरी ध्वंस का परीक्षण सफल रहा और उसके बाद एक चेन रिएक्शन शुरू हो सकी ....जो आज तक जारी है...

Sunday, December 11, 2016

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--7: जरूरी है झटके साथ लटका !

असंतोष और विद्रोह न पनपे, इसलिए झटके के साथ लटका जरुरी है !धर्म का लटका , जाति का लटका, क्षेत्र का लटका, देशभक्ति का लटका, काल्पनिक दुश्मनों का लटका, ऐतिहासिक दुश्मनियों का लटका. लटका पहले से न मौजूद हो तो अपने कसीदेकारों से उसे बनवाया जाये, और ऐन झटका देने के पहले उसे झालर की तरह लोगों को पहनाया जाये.
यह बात दुनिया जानती है कि भारतीय जनता पार्टी संघ की खाद पानी से उगी हुई पार्टी है...बावजूद ऐसे औपचारिक वक्तव्यों के कि "संघ एक सांस्कृतिक संगठन है"
यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि संघ का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कभी कोई योगदान नहीं रहा और इसके नेता गिरफ्तारी से बचने और छूटने के लिए अंग्रेजों से लेकर इंदिरागांधी तक से लिखित माफ़ी मांगते रहे और सहयोग का वायदा करते रहे. थोडा कम प्रकाशित लेकिन लेकिन रेकार्डेड तथ्य है कि द्विराष्ट्र सिद्धांत भी इसी विचारधारा की देन है.
संघ कभी कोई आंदोलन प्रत्यक्ष नहीं करता लेकिन समाज से उपजे आन्दोलनों को गोद लेने में निपुण है. 1977 में अपातकाल के बाद उपजे जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को नानाजी देशमुख ने सफलता पूर्वक गोद लिया और जनता पार्टी में अपने राजनीतिक घटक जनसंघ को प्रमुखता दिलाई.
जनता पार्टी के टूटने बिखरने के बाद बनी हुई भारतीय जनता पार्टी बिना मुद्दों के और उसके नेता बिना किसी विशेष पहचान के साल दो साल लटकते रहे और इसी बीच संघ ने विश्वहिंदू परिषद् के माध्यम से रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के सुप्त मसले को हवा देने की कार्यवाही शुरु की.
1980-81 में रसीदें छपी और अयोध्या समेत सारे देश से चंदा इकठ्ठा किया जाने लगा और तीन चार साल बाद लालकृष्ण अडवानी को आगे करके रथयात्रा निकाली गयी जिसकी परिणति बाबरी मस्जिद विध्वंस में हुयी और उसके दुष्परिणाम, मुंबई बम काण्ड से लेकर गुजरात दंगों तक दिखाई दिए.
फिर तो सिलसिला चल निकला और पार्टी को जमीन मिलनी शुरू हो गयी.
संघ के अन्दर यह ख़ास बात है कि वह लम्बे लक्ष्य बना कर उस पर सुनियोजित काम करता है... जिसके परिणाम भले देर से, पर निश्चित आते हैं. वह अपनी विध्वंसकारी और विभाजनकारी नीतियों को प्रत्यक्ष रूप से हिन्दू संस्कृति और अब देशभक्ति के लासे में लपेटे रखता है.
देश और समाज के माहौल को हमेशा गर्म रखना उसकी नीति है ..और भाजपा भी यही नीति सदा अपनाती रही है. मूल रूप से या वही झटका सिद्धांत है जिसका प्रयोग अमरीका कई दशकों से करता आया है और इसके उदहारण आप अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--1 से लेकर 6 तक की पिछली  किश्तों में पढ़ सकते हैं.
अपने अवसरवादी सहयोगियों के साथ केंद्र में सरकार चला लेने के बाद, कई राज्यों में बहुमत से काबिज हो लेने के भी बाद आखिरकार 2014 में वह दिन भी आ गया जब संघ का एक पूर्णकालिक घोषित कार्यकर्ता पूर्ण बहुमत से देश के शासन पर काबिज हो गया.
इसके लिए उसे अन्ना हजारे को गोद लेना पड़ा.. आपको शायद मालूम न हो लेकिन अन्ना को संघ ने 1988 के पहले से ही अपनाना शुरू कर दिया था जब के. सी. सुदर्शन ने उनकी रालेगण सिन्धी की उपलब्धियों पर एक किताब लिखी थी और उसे संघ के आधिकारिक प्रकाशन ने छापा था.
जयप्रकाश नारायण की तरह अन्ना के आन्दोलन को आधार बना कर लड़ी गयी लड़ाई, कांग्रेस की कूढमगजी, मित्याभिमान और नेतृत्व विहीनता के चलते कामयाब हुयी और भविष्य की सम्भावनाओं को देखते हुए नरेन्द्र मोदी पर देश के थैलीशाहों ने भारी इन्वेस्टमेंट की और  झटकों का सीरियल सही क्लाइमेक्स पर पहुँच गया.
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असंतोष और विद्रोह न पनपे, इसलिए झटके के साथ लटका जरुरी है !
धर्म का लटका , जाति का लटका, क्षेत्र का लटका, देशभक्ति का लटका, काल्पनिक दुश्मनों का लटका, ऐतिहासिक दुश्मनियों का लटका. लटका पहले से न मौजूद हो तो अपने कसीदेकारों से उसे बनवाया जाये, और ऐन झटका देने के पहले उसे झालर की तरह लोगों को पहनाया जाये.
जिससे झटके और धक्के की चोट से पैदा रुदन और चीखें लटके की खनखनाहट में दब जाएँ या फिर उन्हें बेसुरा कह कर दबा देना उचित माना जाए.
संघ और भाजपा के शासनकाल और नेतृत्व में ऐसे असंख्य झटके मिलेंगे और हर झटके के साथ एक-एक लटका मिलेगा, और झटके से पैदा रुदन और चीखों को दबाने की उचित सी लगने वाली कार्यवाही भी मिलेगी.
उदाहरणों पर समय और स्थान खर्च करने की जरूरत नहीं, आप स्वयं अपनी स्मृतियाँ और अखबार खंगालिए और गिन लीजिये.
नोट बंदी इसी तरह का एक झटका है. और काले धन के विरुद्ध अभियान इसका लटका है,
क्योंकि काले धन से निपटने के दूसरे और अपेक्षाकृत सुगम उपाय नहीं किये गए.
और न ही नोट बंदी के साथ आवश्यक पूरक उपाय अपनाये गए.
वाजिब तैयारी भी नहीं की गयी और पूरी कार्यवाही को आकस्मात और नाटकीय बनाया गया. साथ में यह गुन्जाइश भी रखी गयी कि ड्रामा कुछ अधिक समय तक चले और लोगों की स्मृति में गहरे तक जाए.
और इस पर काले धन के विरुद्ध, मोर्चा खोलने का सफ़ेद रंग-रोगन चढ़ाया जाये.
जो लोग अभी इस झटके साथ पिरोये गए लटके को ही सत्य मानते हैं, वे भी कुछ समय बाद असलियत समझ जायेंगे जब आर्थिक मोर्चे पर इसका कोई स्पष्ट सकारात्मक प्रभाव नहीं दिखेगा;
आज तो खैर दिख भी नहीं रहा ! 
 ...लेकिन तब तक कुछ और मसला गर्म कर दिया जायेगा या फिर ठीकरा फोड़ने के लिए कोई सिर ढूँढ लिया जायेगा.  

आईडिया दमदार हो तो उससे चिपके रहो

छुट्टियों के दिन मेरी दोस्तों से जरा चिपक कर बातें होती हैं, मिलना न हुआ तो फोन ही सही. कल Dheeraj Singh मिल गए. डाक्टर हैं, मुंबई में रहते हैं, अस्पताल चलाने के साथ रियल एस्टेट और एजुकेशन में भी काम फैला रखा है. फिलहाल अपने गाँव देवरिया गए हुए है. खुद सर्दियों में धूप सेंकने और ठिठुरते हुए लोगों को कम्बल बांटने.

नोट-बंदी पर तो बात होनी ही थी. जाहिर है, काला धन हम दोनों ही के पास बहुत है.

बातों-बातों में वे अपनी कंपनी का पब्लिक इशू लाने के बारे बताने लगे. फिर बड़ा पैसा बनानेके बात चली जिस पर मैंने कहा, "ठाकुर साहब बड़ा बिजनेस करने के लिए बड़ा पैसा नहीं बड़ा आईडिया होना चाहिए." मैंने hotmail शुरू करने वाले समीर भाटिया से लेकर एप्पल, गूगल से लेकर payTM के विजय शेखर शर्मा तक के उदहारण दिए. जाहिर है इस लम्बी चर्चा में हम दोनों में से किसी का भी धेले का फायदा नहीं हुआ बल्कि vodafone ने जरूर सौ डेढ़ सौ रुपये कमाए.

स्टॉक ट्रेड में होने के नाते मेरी आँखे और दिमाग दुतरफा चलते हैं. दायें-बायें , ऊपर नीचे एक साथ देख लेता हूँ. समय पर सही निर्णय ही स्टॉक और कमोडिटी ट्रेड में कामयाब बनाता है. हो सकता है दिन में ऐसे कई निर्णय आपको तुरत फुरत में करने पड़ जायें---ऐसे मौके बहुत बारआते हैं. निर्णय-शक्ति का यह खेल कर सकना अब मेरे लिए साइकिल चलाने जैसा हो गया है. आदत हो गयी है कि बाजार की ही नहीं, जीवन की भी हर स्थिति के Pros और Cons एक साथ देखूँ .

इसलिए जब मैं धीरज को बड़ा पैसा कमाने के लिए बड़े आईडिया वाली बात बता रहा था तो मुझे अचानक Ronald Wayne याद आया.

Ronald Wayne को जीवन में सबसे बड़ा गलत निर्णय लेने के लिए जाना जाता है. कुछ लोग उन्हें दुनिया का सबसे unluckiest आदमी मानते हैं.

Ronald Wayne महाशय 1976 में एक सक्षम और प्रतिभावान इंजीनियर थे और अटारी नाम की गेमिंग कंपनी में अच्छे पद पर थे. जब स्टीव जॉब्स और स्टीव वोझ्नायक ने एप्पल पर काम करना शुरू किया तो ये उनके तीसरे भागीदार थे.
Ron Wayne is the man who won the lottery but lost the ticket.लेकिन स्टीव जॉब्स और स्टीव वोझ्नायक के सनक भरे प्रयोगों और डेस्कटॉप कम्प्यूटर के क्षेत्र में क्रांति लाने वाली बड़ी बड़ी बातों से ऊब कर अपने हिस्से के 800 डालर लेकर 1976 में ही अलग हो गए, हालाँकि बहुत थोड़े समय तक जो भी वे साथ थे, उन्होंने "Apple I" के प्रोटोटाइप के लिए अच्छी इंजीनियरिंग drawings बनायीं.

अब देखिये 1976 में उनके अलग होने के बाद एप्पल ने कैसा इतिहास रचा ! अपने शुरुआत के चार सालों में उससे जुड़े बहुत लोग करोडपति बन गए. हालाँकि 1995-98 के बीच एक दौर ऐसा भी आया था कि windows के सस्ते कम्प्यूटरों के दबदबे की वजह से एप्पल कंपनी काफी घाटे में आ चुकी थी, लेकिन यह भी सच है कि imac से स्टीव जॉब्स ने नयी पारी शुरू की और अपने नए design ideas के बूते आज फिर नम्बर वन ही हैसियत रखती है.

आज बिजनेस की दुनिया में मशहूर कहावत है "Ron Wayne is the man who won the lottery but lost the ticket."

आईडिया नया और दमदार होना चाहिए बाबू, फिर जो भी करो वह उपयोगी भी होगा और कमाऊ भी.

फिलहाल आप Ronald Wayne के दर्शन कीजिये--- अब और तब.

Saturday, December 10, 2016

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--6: खाड़ी युद्ध से भरी गयी तिजोरियां

इसके पहले कि खाड़ी युद्ध के व्यापारिक निहितार्थ खोजे जाएँ, एक व्यक्ति का कैरिअर ग्राफ हमें शुरू से देखना होगा और वह है डोनाल्ड रम्ज़फिल्ड --मिल्टन फ्रीडमन का यह चेला मोंट पेलेरिन के उन आरम्भिक रोबोट्स में से एक था जो शुरुआत में ही अमेरिकी सरकार में इनस्टॉल किये गए थे और जिनका काम था अमेरिकी शासन तंत्र को पूंजीपतियों के लिए तैयार करना। डोनाल्ड रम्ज़फिल्ड. ने यह काम औरों की तुलना में अधिक कुशलता से निभाया ।
अब नीचे दी हुयी बातों का तारतम्य जोड़ते हुए इराक पर दूसरे अमेरिकी हमले तक आईये---
१. राष्ट्रपति चुनावों में हर कहीं से जीतते जा रहे प्रत्याशी अल गोर के विरुद्ध और जार्ज बुश जूनियर के पक्ष में फ्लोरिडा में धोखाधडी के फलस्वरूप जार्ज बुश का जीतना । जनता और अमेरिकी कांग्रेस में इसके विरुद्ध प्रबल विरोध को निरस्त करने हेतु सीनेट मेम्बेर्स की रहस्यमयी और न्यायपालिका के शीर्ष न्याय मूर्तियों की जार्ज बुश सीनियर के प्रति कृतज्ञता के कारण अपराधिक चुप्पी ।
२. दोनों जार्ज बुश राष्ट्रपतियों का सऊदी अरब के बिन लादेन परिवार के बहुत करीबी और सीधे लाभ के रिश्ते से जुड़ा होना ।
३. ट्विन टावर के ध्वस्त होने की रात सऊदी अरब के अमरीका स्थित राजदूत को ह्वाइट हाउस में डिनर के लिए आमंत्रित किया जाना और उसी रात को बिन लादेन परिवार के १३१ सदस्यों को अमरीका से चुपचाप चार्टर्ड हवाई जहाज से सऊदी अरब सुरक्षित भेज दिया जाना ।
४. हमले के ठीक एक दिन पहले डिफेंस सेक्रेटरी डोनाल्ड राम्ज्फिल्ड का यह ऐलान कि पेंटागन की अफसरशाही अब अमेरिकी डिफेंस के आधुनिकीकरण के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है ।
५. हमले की शाम अपने मातहत एजेंसियों को डोनाल्ड राम्ज्फिल्ड का यह निर्देश कि हमले के जिम्मेदार आतंकवादियों के छिपे होने की संभावनाएं इराक में तलाशी जायें ।
६. इराक पर हमले का परिमाण, जो की इतना बड़ा था की उसकी आलोचना अमेरिका के सबसे बड़े चमचे ब्रिटेन ने भी की तो राम्ज्फिल्ड ने इसकी जिम्मेदारी बड़ी चाला्की से अमेरिकी जनरल टॉमी फ्रैंक पर डाल दी ।
७. ९/११ के हमले पर अमेरिकी कांग्रस द्वारा नियुक्त जांच आयोग ने भी ऐसे कई महत्त्वपूर्ण सबूतों को नजरंदाज किया जो हमले की प्रचलित धारणा के विरुद्ध इशारा करते थे । जाँच के दौरान हुयी सुनवाई में केवल सुविधाजनक गवाहियों को पुरे अमेरिका में टेलीविजन पर दिखाया गया जब कि सभी असुविधाजनक गवाहिया बंद कमरे में ली गयीं और आयोग की अंतिम रिपोर्ट में उनका जिक्र तक नहीं किया गया ।
सारी बातों को मिला कर देखने से यह समझ पाना आसान है कि इराक और अफगा्निस्तान निशाने पर थे ही, बस सही बहाने का इन्तजार था और वह बहाना पैदा कर लिया गया । यह भी स्पष्ट है कि ओसामा बिन लादेन में अमेरिका को अच्छी सम्भावनाये शुरू में ही दिख गयीं थी और वह उसे उस सीमा तक चुपचाप पनपने देता रहा या पनपाता रहा जब तक कि वह इस्तेमाल लायक न बन जाये ।
वास्तव में अमेरिका का उद्देश्य इराक पर हमले के बहाने एक बड़ा युद्ध करके अपना बाजार कायम करके मुनाफा कमाना था ...साथ में दुनिया को यह बताना भी था कि उसकी सामरिक शक्ति के आगे कोई टिक नहीं सकता, इसीलिए ४००००० के करीब सैनिक युद्ध में उतारे गए । यह युद्धक सामग्री को अच्छी मात्रा में खपाने का एक मजबूत भी जरिया बना ।
इराक पर हमले का भयंकर रूप आम इराकी नागरिक और सद्दाम को तत्काल बदहवास करने के लिया रचा गया जिससे उनकी निर्णय क्षमता नष्ट हो जाये और हुआ भी वही । इराक को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया, नागरिक व्यवस्थाएं धूल में मिल गयीं । पर हमें युद्ध के विवरण में न जाते हुए केवल उसके कारणों और नतीजों के अंतर्संबंधों को देखना है जिससे इसके पीछे चली गयी आर्थिक चालों को समझा जा सके ।
इराक पर तिहरा झटका सिद्धांत अजमाया गया । पहला युद्ध से शासन व्यवस्था को नष्टप्राय कर नागरिको में भारी असंतोष, असुरक्षा और अराजकता पैदा करना, दूसरा आर्थिक पुनर्स्थापन के नाम पर सार्वजनिक धन की लूट और तीसरा युद्ध में बंदी बनाये गए सैनिको और सामान्य इराकियों के साथ क्रूरतम अमानवीय व्यवहार, जैसा अब हम देखेंगे ----
सद्दाम के पकड़ लिए जाने का बाद इराक में पुनर्निर्माण करने और नयी सरकार बनाने के पहले मई २००३ में अंतरिम प्रशासक के रूप में पॉल ब्रेमेर की नियुक्ति की गयी जिन्होंने आगे चल कर हर क्षेत्र में पुनर्निर्माण करने के लिए अमरीकी कंपनियों को ही न्योता और उन्हें सहायता राशि के पैसे दोनों हाथों से लुटाये । इस प्रक्रिया में पहले ब्रेमेर ने नए क़ानून बनाये जिसमे इराक में आने वाली कंपनियों को टैक्स में भरी छूट की घोषणा की गयी और उसके तुरंत बाद पांच लाख इराकी सरकारी कर्मचारियों को निकाल कर बाहर कर दिया गया जिससे सरकारी उपक्रमों पर निजी कब्ज़ा हो सके ।
उधर जार्ज बुश अपनी दरियादिली का ढोल अलग पीट रहा था .उसने घोषणा की कि इराक को पुनर्जीवित कर समृद्ध बनाना आज अमेरिका की सबसे बड़ी प्रतिबदधता है ।
लेकिन जमींन पर कुछ और ही हो रहा था। पुनर्निर्माण के लिए जो कम्पनियाँ आई उन्होंने ठेके लिए और बांटे न कि नए उपक्रम खड़े किये की जिनसे इराकी इंफ्रास्ट्रक्चर बनती और इराक समृद्ध होता। इराकियों को अत्यंत निम्न स्तर के काम में लगाया गया यहाँ तक कि कुशल इंजिनियर भी मजदूरों के स्तर पर कार्य करते पाए गए । इस सबके बीच चांदी किनकी थी?....जरा गौर कीजिये ----
१. क्रिएटिव असोसिअटस (१० करोड़ डॉलर) नए पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए 
२. बेअरिंग पॉइंट मैनेजमेंट एंड टेक्निकल कंसल्टेंसी (२४ करोड़ डॉलर) मुक्त अर्थव्यवस्था का मॉडल तैयार करने के लिए 
३. RTI उत्तरी कैरोलिना (४६.६ करोड़ डॉलर) इराक में जनतंत्र की स्थापना कैसे की जाये इस बाई पर सलाह देने के लिए 
४. हेलिबरटन (२००० कारोड डालर ) विभिन्न निर्माणों के लिए
इसके अलावा १८.६ करोड़ डॉलर १४२ स्वास्थ्य केन्दों को बनाने के लिए बिजली संचार और पेय जल व्यवस्था को सही करने की लिया सैकड़ों करोड़ अलग से
मजे की बात यह रही की चार साल गुजर जाने के बाद भी कुछ भी सही नहीं हुआ....निर्माण आधे अधूरे रहे और बजट की लूट जारी रही यहाँ तक कि नयी इराकी मुद्रा भी देश के बाहर ही छपती रही ..यह हालत इसलिए लिए हुयी क्योंकि कोई भी एजेंसी काम करने से ज्यादा ठेके को आगे बढ़ने में और अपना मुनाफा काटने में रूचि रखती थी....हालत यहाँ तक थी ठेकेदारों के नीचे ठेकेदार और ठेकेदारों के ऊपर ठेकेदार , दायें और बाये भी ठेकेदार ही नजर आते थे..
इधर पुनर्निर्माण के नाम पर लूट जारी थी और उधर इराकी जनता को कोई राहत न पाकर प्रतिरोध करती रही, पिटती रही और गिरफ्तार होती रही और अमेरिकी कैम्पों में यातनाएं पाती रही.....
इतने सारे तांडव के बाद कोलिअशन फोर्सेज हट गयीं अमेरिका और ब्रिटेन ने बड़ी मासूमियत से "सॉरी" बोला पूरी दुनिया को कि भाई गलती से हमला हो गया हमसे क्या करे हमका माफ़ी दे दो, ..
अब इस सादगी पे कौन न मर जाये इनकी .......

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--5: आतंकवाद के झटकों से मुनाफा

अमेरिका ने किसी मुल्क के संसाधनो पर नियंत्रण करने के लिए एक तरकीब सिद्ध कर ली है; जिसके प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैं ---
१. पहले किसी तरह अपनी पसंद के भौगोलिक क्षेत्र में कुछ संघर्ष पैदा किये जाएं। 
२. फिर उन्हें कोई ऐसा नाम दे कर प्रचारित किया जाये कि जिस बहाने किसी एक पक्ष को मदद पहुंचाई जा सके या फिर उससे लड़ा जा सके। और उस लड़ाई को विश्व मानस में अन्याय के विरुद्ध युद्ध का नाम दिया जा सके। 
३. इन दोनों कार्यवाहियों के सहारे आप संघर्ष पर परोक्ष या प्रत्यक्ष नियंत्रण पा लेते है। 
४. क्षेत्रीय संघर्ष पर नियंत्रण होते ही उस क्षेत्र के संसाधनो और फिर शासन पर परोक्ष नियंत्रण आसान हो जाता है। 
५. फिर इसी परोक्ष नियंत्रण के सहारे अपनी पूँजी का रोपण किया जाता है जो बाद में वटवृक्ष बन जाता है। 
६. इसके बाद उसकी जड़ें गहरी और शखाएं विस्तृत हो कर स्थानीय जीवन शैली में शिराओं की तरह गुम्फित हो जाती हैं। 
७. अब उसे सकना बाद की सरकारों की लिए संभव नहीं होता क्योंकि किसी भी जीवित शरीर (यहाँ राष्ट्र समझिए ) की इतनी सर्जरी संभव नहीं होती।
अब कहानी को एक सिरे से पकड़ते हैं। 
सोवियत रूस के टूटने और वहां पर वैध और अवैध पूँजी के की स्थापना के बाद अमरीका का एक बहुत दिनों से निर्धारित लक्ष्य पूरा हो गया था; लेकिन हथियार लॉबी अभी भी जोर मार रही थी; क्योंकि उसके कमाने के लिया रूस में कुछ ख़ास अवसर नहीं था। इस समय जॉर्ज बुश (सीनियर) की सरकार थी तो उन्हें ही कुछ करना था। इसी बीच सद्दाम ने कुवैत पर कब्ज़ा करके यह मौका उन्हें उपलब्ध करा दिया।
उधर अफ़ग़ानिस्तान गरम हो रहा था, जिसमे अभी के जी बी, आई इस आई और सीआईए का संयुक्त खेल बाकायदा शुरू होना था। अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप, जहीर शाह से लेकर नजीबुल्ला तक की सरकारों के दौरान प्रायोजित उठापटक और सऊर क्रांति, अफगान शरणार्थियों का पाकिस्तान की ओर पलायन, फलस्वरूप पहले तालिबान, और फिर आठ वर्ष बाद अलकायदा का बनना और उस बहाने सऊदी अरब के पैसे और वहाबी लडाको का अफगानिस्तान में घुसना, अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानी हुकूमत--- १९७८ से १९९२ के बीच हुए इन सारे घटना क्रमों ने अमरीका को यहीं सक्रिय होने की जमीन उपलब्ध करा दी।
दस बारह साल के बीच फैले इस घटनाक्रम का कई कोनों से विश्लेषण हो चुका है, लेकिन इसमें आर्थिक कोण को उतना महत्व नहीं दिया गया जब की वही सर्वाधिक महत्व पूर्ण है। यहाँ ज्यादा विस्तार में न जाते हुए केवल कुछ विन्दुओं को रेखांकित करता हूँ जिससे की यह कोण स्वयं स्पष्ट हो जाये -----
१ . यह तो सर्वविदित है ही कि विश्व अर्थव्यवस्था के तेल पर आधारित है
२. अमेरिका के हित तेल भण्डार रखने वाले देशों से अनिवार्य रूप से जुड़े है।
३. इराक में पूरी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल का भंडार है।
४. सद्दाम ने कुवैत पर हमला उसके तेल के कुओं पर कब्ज़ा करने के लिए किया। ऐसा इसलिए उसे जरुरी लगा क्योंकि कुवैत के बढ़ते उत्पादन की वजह से तेल की कीमतें बढ़ नहीं पा रही थीं जब कि इराक़ चाहता था की वे बढ़ें और वह बढ़ती कीमतों के सहारे अपने विदेशी मुद्रा के घाटे को नियंत्रित कर सके जो कि खतरनाक हद तक बढ़ा हुआ था।
५. सऊदी अरब में तेल से मालामाल होने के बाद इस्लामिक नेतागीरी में चमकने की महत्वकांक्षा जन्म लेने लगी थी और दुनिया के मदस्यों को खैरात बांटने के अलावा वहां के सर्वाधिक धनी बिन-लादेन खानदान के एक लड़के ओसामा ने इसी को अपना करियर बनाने की सोची।
६. इसी के साथ कुरान जैसे गूढ़ ग्रन्थ को ---जिसकी व्यंजनाए सदियों से विद्वानो के कुतूहल का विषय रही थीं --सऊदी अरब ने एक झटके में ही समझ लिया और उसी को उसका शुद्धतम और अंतिम भाष्य मान कर अपने पैसे के बूते दुनिया भर में प्रचारित करने शुरू कर दिया। हदीस को मरोड़ कर कबीलाई मान्यताओं के साथ गूंथकर शरिया कानून बनाये गए, उन्हें तानाशाही ढंग से लागू किया गया और दुनिया में इस्लामिक राज्य कायम करने का शेखचिल्ली रवैया शुरू हुआ, जिसका आधार क्रूरतम कट्टरता थी, और आज भी अपने विकराल रूप में हमारे सामने है ।
७. यह सभी बातें अमरीका (और सीआईए को) को भाती थीं...... क्योंकि कट्टरता संघर्ष को जन्म देती है और संघर्ष बाहरी हस्तक्षेप के लिए वाजिब कारण और जमीन तैय्यार करता है जिस पर पूँजी और व्यापार का वटवृक्ष रोपा जा सके। यही कारण रहा और है कि जनतंत्र और आजादी का ढोल बजाने वाला अमरीका अरब मुल्कों की कट्टरता और तानाशाही पर हमेशा साजिशी चुप्पी रखता आया है।
१९९६से २००१ के बीच अफ़ग़ानिस्तान में चले गृहयुद्ध पर केंद्रित हो कर सोचते हैं। काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद मसूद और दोस्तम के नॉर्थर्न अलायन्स और तालिबान के बीच हो रही लड़ाई मे पाकिस्तानी तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने खुल कर पाकिस्तान से अल कायदा को फौजी मदद पहुचाई थी। लाखों अफगानी नगरिक मारे जा चुके थे और इतने ही शरणार्थी के रूप में संयुक्त राष्ट्र को चिंतित होने की जमीन मुहैय्या करा रहे थे।
खेती की जमीन तैयार थी। उर्वरता बढ़ने के लिए ओसामा बिन लादेन ने भी अपना अड्डा अफ़ग़ानिस्तान की तोरा बोरा पहाड़ियों में बनाया हुआ था। अब सिर्फ इन्तजार था तो अंतिम झटके का की जिसके तहत सर्व शक्तिमान जी आएं, दुष्टों का नाश करें और अपने वंश की अमरबेल यहां रोप जाएं। यह झटका तीन ऐतिहासिक दिनों में ९, १० और ११ सितम्बर २००१ को आया जिससे की पूरे विश्व की जमीन हिल गयी, लोगों की सोच बिखर गयी और दुनिया सीधे दो ध्रुवों में बाँट गयी। लोग पीछे की बातों का तारतम्य भूल गए और सुर नर मुनि सभी एक साथ मानसिक रूप से विश्व प्रभु अमरीका के साथ हो गए।
----९ सितम्बर २००१ को ओसामा के तैयार किया हुए दो अरब फिदायिनों ने मसूद की हत्या कर दी।
----एक और ताजुब की बात १० सितम्बर को अमरीका में डोनाल्ड रमजफील्ड ने अमरीका में सार्वजानिक घोषणा की कि हमारे (पूँजीवाद के) सबसे बड़े दुश्मन का सफाया हो चुका है लेकिन अमेरिका का उससे बड़ा दुश्मन तो घर के भीतर ही बैठा है। और वह है पेंटागन की अफसरशाही। इसे समाप्त कर सुरक्षा मामलों को प्राइवेट सेक्टर में लाने की जरुरत है। इस विचित्र से लगने वाले वक्तव्य पर सामान्य अमरीकी जन भी चकित हुए लेकिन गूढ़ार्थ खुलने में कुछ ही दिन लगे।
----इसी के ठीक दो दिन बाद ११ सितम्बर को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ। जो कि जाहिर है एक दिन की तैयारी का परिणाम नहीं था इसके लिए महीनो क्या साल भी पड़ सकता था।
अब सहज बुद्धि से इन तीनो बिन्दुओ को जोड़िये तो जो तस्वीर उभरती है वह डरावने सत्य का दर्शन कराने वाली है।
हथियारों और सुरक्षा उपकरणों के सौदागर जो अब तक कृतार्थ नहीं हो पाये थे वे सब गंगा नहा गए। साथ में निर्माण, शिक्षा और दूसरे उद्योगों ने भी उनके साथ कुम्भ का लाभ लिया।
और सबसे ऊपर याद रहे इस दौरान अमरीका में एक ऐसे व्यक्ति का शासन था जो अपने बाप के रसूख के बल पर चुनाव में धोखाधडी कर राष्ट्रपति बना था और अपने आरंभिक वर्षों में कुछ भी नहीं कर पाया था। जरा सोचिये कि कितनी जरुरत थी उसे लोगों की निगाह में हीरो बनने की ! बिलकुल थैचर की तरह। और वह सिर्फ हीरो ही नहीं बना, अपने देश के पूँजीपतियो की आँखों का तारा भी कहलाया।
आपकी उत्सुकता को बढ़ाते हुए एक बात और बताता चलूँ कि जॉर्ज बुश और उनके पिता का सऊदी अरब के बिन लादेन परिवार के बहुत करीबी रिश्ता रहा है। बुश सीनियर अपना अमरीकी राष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल समाप्त करने के बाद बिन लादेन की कंपनी से बतौर सलाहकार १ लाख डॉलर प्रतिमाह का मानदेय वसूलते रहे हैं......
.९/११ को ट्विन टावर के ध्वस्त होने की रात सऊदी अरब के अमरीका स्थित राजदूत को ह्वाइट हाउस में डिनर के लिए आमंत्रित किया गया और उसी रात को बिन लादेन परिवार के १३१ सदस्यों को अमरीका से चुपचाप चार्टर्ड हवाई जहाज से सऊदी अरब सुरक्षित भेज दिया गया जिसका आधिकारिक रिकॉर्ड भी मौजूद है । सीखने की चीज यह है की उस रात पूरे अमेरिका में सारी घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय हवाई उड़ने बंद कर दी गयी थीं यहाँ तक कि कई मशहूर लोग (गायक रिकी मार्टिन और पूर्व राष्ट्रपति बुश सीनियर समेत) भी हवाई अड्डों में उड़ानें सामान्य होने तक फंसे रहे थे ।
आप इन घटनाओं के अन्तर्सम्बन्धों को जोड़िये, अगली कड़ी में अफ़ग़ानिस्तान और इराक के युध्द के मुनाफे पर पूरी तरह केंद्रित रहूँगा।

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--4: सोवियत रूस का टूटना

थैचर और रीगन का अभियान रंग ला रहा था पूंजीपति सरकारी छूट और निजीकरण की नयी आंधी से फल फूल रहे थे और उनकी समृद्धि के ढोल संचार माध्यमों के द्वारा जोर जोर से पीटे जा रहे थे। नतीजतन आर्थिक जगत में आ रही इस थोथी चमक से दुनिया प्रभावित होने लगी थी। आम जनता में धारणा बन रही थी कि शायद यह सम्पन्नता का नया दौर है जिसमें सब बल्ले बल्ले होगा। अमेरिका और यूरोप के साथ तीसरी दुनिया का मध्य वर्ग भी इस चमक में खो कर उम्मीद कर रहा था कि मुक्त बाजारीकरण से समृद्धि और उसके साथ सुख उसके द्वार पर दस्तक देगा।
इस सबके बीच दुनिया के मध्यवर्ग की सोच में एक तात्विक बदलाव आया और वह यह कि उसकी सहानुभूति जो पहले निम्न वर्ग की ओर रहती थी, अब बढ़ती आकाँक्षाओं के दबाब उच्च वर्ग की ओर मुड़ गयी। किफ़ायत और बचत पर आधारित जीवन मूल्य बदल कर अधिक खर्च और उपभोग की तरफ मुड़ने लग गए।
इस बदलाव का असर रूस पर भी पड़ा और वहां कई दशकों से आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे पर अतिनियंत्रण भोगती जनता के बीच से भी जनतांत्रिक व्यवस्था की आवाजें उठने लगी। इसे पहचानते हुए उस समय रूस के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचोव ने "ग्लासनोस्त" और "पेरेस्त्रोइका" का आह्वान किया; जब कि उनके पहले उठने वाली जनतंत्र की मांगों को सेना द्वारा कुचल दिया जाता था। गोर्वाचोव रूस की अक्टूबर क्रांति के बाद पैदा होने वाले पहले रूसी राष्ट्रपति थे और उनकी इस नयी सोच का कारण भी शायद यही था। उन्होंने समाजवादी जनतंत्र वाला बीच का रास्ता अपनाना चाहा जिसका लक्ष्य राजनैतिक आर्थिक गतिविधियों पर कठोर नियंत्रण की बजाय उन्हें नियंत्रित छूट देते हुए एक ऐसी व्यवस्था कायम करना था जिसमे आम जनता की भागीदारी हो।
अब गोर्वाचोव की इस नीति में पश्चिमी देशों के नेताओं को नयी सम्भावनाये नजर आयीं। थैचर ने उन्हें अत्यधिक साहसी बताया। यही वह समय था कम्युनिजम के प्रतीक एक एक करके ढह रहे थे अथवा कमजोर पड़ रहे थे। हंगरी, पोलैंड और पूर्वी जर्मनी में अधिनायक वादी वामपंथ को चुनौतियाँ मिल रही थीं। बर्लिन की दीवार भी इसी बीच गिरा दी गयी जिसने जर्मनी को दो बंट रखा था। जाहिर है फ्रीडमन और शिकागो स्कूल के गिद्धों के लिए अब नए भोज्य क्षेत्र उपलब्ध हो रहे थे। इसी बीच लन्दन में हो रहे जी-७ देशों के सम्मलेन में आमंत्रित गोर्वाचोव को यह स्पष्ट रूप से बता दिया गया की रोस में कोई भी बाहरी निवेश तभी संभव होगा जब वे वहां पूंजीपतियों के आजमूदा "झटका सिद्धांत" को अपनाने के लिए तैयार होंगे। यह गोर्वाचोव के लिए असमंजस की स्थिति थी लेकिन पूँजी के गिद्ध रूस की संभावनाएं सूंघ चुके थे अतः उन्होंने उनके आतंरिक प्रतिद्वंदियों (विद्रोहियों) की ओर देखना शुरू किया तो उन्हें सबसे पहले बोरिस येल्तसिन नजर आये।
गोर्वाचोव के शुरुआती दिनों से ही उनपर सोवियत अर्थव्यवस्था को सुधारने की जिम्मेदारी आन पड़ी थी। बोरिस येल्तसिन उनके प्रिय थे और इसी लिए उन्हें नयी पदोन्नतियां और जिम्मेदारिया मिलती रहीं लेकिन अक्टूबर १९८७ में दोनों के बीच खटास पैदा हो गयी जब येल्तसिन ने मामूली से आतंरिक मत भेद पर पोलित ब्यूरो से अपना स्तीफा दे दिया। यह अभूतपूर्व घटना इस मायने में थी की तब तक किसी भी पोलित ब्यूरो सदस्य ने स्वेच्छा कभी पोलित ब्यूरो नहीं. छोड़ा था। इधर यह उठापटक जारी थी और उधर येल्तसिन अपने को मॉस्को की जनता में लोकप्रिय बना बनाते जा रहे थे। वे आफिस आने जाने के लिए साधारण बसों का प्रयोग करते और रोजमर्रा की चीजों के बढ़ते दामों पर सार्वजानिक विरोध जताते। गोर्वाचोव द्वारा लगातार डेमोट (demote) किया जाने के बाद वे स्थनीय चुनाव जीतते रहे नतीजतन केंद्रीय सत्ता की ओर उनके कदम बढ़ते रहे। साथ ही उन्होंने मौजूदा केंद्रीय सरकार की खुली आलोचना भी जारी रखी।
इसके बाद १८ से २१ अगस्त १९९१ बीच तीन दिनों में जो हुआ वह और भी अभूतपूर्व था, बिलकुल एक नाटक की शैली में---- एक झटका बड़े जोर का लेकिंन धीरे से और कहीं अधिक बारीकी से दिया हुआ।
यही झटकेदार घटनाक्रम सोवियत रूस के टूटने और पूँजी की बेरोकटोक घुसपैठ को संभव बनाने वाला साबित हुआ। गोर्वाचोव के विरुद्ध "पेरेस्त्रोइका" विरोधियों ने सशस्त्र तख्ता पलट की कोशिश की और गोर्वाचोव को नजर बंद कर लिया। कुछ घंटों की गोली बारी और संघर्ष के बाद तख्ता पलट करने वाले बिखर गए बिना किसी जवाबी हिंसक कार्यवाही के।जिस सैन्य टुकड़ी और कम्युनिस्ट पार्टी के कट्टरों ने आर्थिक आर्थिक सुधारों के विरोध में यह सब किया था वे आश्चर्यजनक रूप से रुसी संसद के भीतर नहीं घुसे। इसके बाद येल्तसिन तख्ता पलट करने वालों के मुकाबले में आ गए और उन्होंने रुसी संसद के पास खड़े एक टैंक पर चढ़ कर जोरदार भाषण दिया।.. इतने नाटक के बाद गोर्वचोव को नजरबंदी से छुड़ा लिया गया लेकिन उनकी राजनैतिक शक्ति और समर्थन बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था ।अब येल्तसिन सोवियत जनता के हीरो बन गए। इसके बाद १७ दिसम्बर १९९१ को गोर्वचोव और येल्तसिन के बीच मीटिंग हुयी और सोवियत यूनियन को समाप्त करने का निर्णय लिया गया।
आम सोवियत जनता के लिए यह बहुत बड़ा और बहुत जोर का झटका था। अब रशियन फेडरेशन की आर्थिक नीतियां बनाने का जिम्मा येल्तसिन का था।
यह शक्ति मिलता ही येल्तसिन ने इतने धुआंधार ढंग से आर्थिक सुधारों को लागू करने का कार्यक्रम शुरू कर दिया जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था जब कि गोर्वाचोव के चलते और उनसे खटपट के बावजूद यही येल्तसिन सदा नियंत्रित सुधार के समर्थक रहे थे, और वह भी मुखर ढंग से नहीं। लेकिन अब उनके सलाहकारों में शिकागो स्कूल से तैयार किया गए मोंटे पेलरीन के रोबोट्स का दबदबा था।
मेरा ख्याल है कि अब जी-७ की वार्ता के दौरान गोर्वाचोव पर बनाये गए दबाव से लेकर येल्तसिन के सत्तरूढ़ होने तक की कड़ियाँ जोड़ने पर आप रूस को तोड़ने के लिए डिज़ाइन किये गए चालाक झटके को समझ गए होंगे। यह झटका थोड़ा खामोश किस्म का था क्योंकि बोरिस येल्तसिन को "रोपने" के लिये जमीन को कुछ दीसरे ढंग से मुलायम किया जाना जरुरी था।
अब जरा येल्तसिन के आर्थिक सुधारों वाले रूस के माहौल पर गौर कीजिये कि वहां कौन-कौन से परिवर्तन हुए ---
१. खुली आर्थिक नीति के दावों के बावजूद व्यापर का लाभ चंद पहुँच वाले व्यापारियों तक ही सीमित रहा। 
२. राज्य के अधीन उद्योगों को कौड़ियों के मोल डिसइंवेस्ट किया गया। 
३. आम नागरिक की क्रय शक्ति ४०% से निचे गिर गयी और तनख्वाहें महीनो देर से मिलने लगीं । करीब १४ करोड़ देशवासी (पूरी आबादी के आधे से अधिक) गरीबी की रेखा के निचे जिंदगी बसर करने को मजबूर हो गए. 
४. भ्रष्टाचार और संगठित अपराध इस कदर बढे की मास्को अपराधियों का नया तीर्थ बन गया। इसी के साथ देह व्यापार भी बढ़ा।
इतना होने के बाद १९९३ में संसद ने प्रस्ताव पास कर येल्तसिन को दिए आर्थिक निर्णयों के अधिकार वापस लेने चाहे तो येल्तसिन ने आपातकाल घोसहित कर दिया जो की असंवैधानिक भी ठहराई गयी। बाद में येल्तसिन ने संसद भंग कर दी लेकिन पश्चिमी देश उनकी पीठ ठोंकते रहे और उन्हें रूस में जनतंत्र का अग्रदूत बताते रहे। इसके बावजूद संसद ने ६०० से अधित मतों से प्रस्ताव पारित कर येल्तसिन पर महाभियोग लेन की तैयारी कर ली। इससे उत्साहित लाखों लोगों ने मास्को संसद के समर्थन में प्रदर्शन करने शुरू कर दिये; जिन पर येल्तसिन ने गोलियां चलवा दीं। इसमें १०० से ऊपर मारे गये और सैकड़ों घायल हुए।
यही नहीं, येल्तसिन ने रुसी वाइट हाउस पर भी टैंकों से हमला करवा दिया और खुद सम्पूर्ण शक्ति का केंद्र बन बैठा। अब शिकागो के सलाहकारों की बन आई और खुली लूट शुरू हुयी। १९९८ आते आते ८०% प्रतिशत राजकीय उपक्रम या तो दिवालिया हो गए या बंद कर दिए गए। इसकी वजह से जहाँ एक ओर आम रूसी जनता को खाने के लाले पड़ रहे थे वही दूसरी ओर दर्जनो नये अरबपति बन गए, जिनकी सत्ता में ऊंची पहुँच थी। मोंट पेलेरिन के रोबोट्स अपना काम कर चुके थे। गोर्वचोव के समाजवादी जनतंत्र दफना कर अमेरिकी व्यक्तिवादी स्वतंत्रता का नाटक खेला जा रहा था। सार्वजनिक पूँजी स्वाहा हो चुकी थी, उसकी जगह कॉर्पोरेट गुलामी का नया दौर पनपने लगा था।
झटका तगड़ा था लेकिन हिंसा का पैमाना उतना नही था जितना चिली और ब्राजील में था लेकिन अभी और बहुत कुछ होना बाकी था --अफ़ग़ानिस्तान में, ईराक़ में और अमेरिका में भी, जिसकी कल्पना तो मिल्टन फ्रीडमन और वोन हायेक ने भी नहीं की थी।