Saturday, December 10, 2016

जीवन में अर्थ: प्रेम की अनुपस्थिति, ऋण की अवधारणा, युद्ध और आर्थिकी

कहा जाता है कि जब तक जीवन है प्रेम और युद्ध जारी रहेंगे. 
दिन-रात, अच्छाई-बुराई, अँधेरे-उजाले की तरह ! 
मेरा मनना है कि यह सब कुछ ऐसे शुरू हुआ होगा

जिन्दा रहने और प्यार पाने के लिए आदमी जन्म से ही लड़ता रहा है ! 
बाकी वजहें सभ्यता के विकास के साथ इसी जमीन पर पनपती चली गयीं.
प्यार से महरूम लोग ही सत्ता हासिल करने की तरफ मुड़े और हर उस चीज पर काबिज होने के लिए दूसरे लोगों से लड़े, जो सत्ता का प्रतिनिधित्व करती थी. मेरी नजर में यहाँ भी उनका अंतिम लक्ष्य प्यार और स्वीकार पाना ही था; जो शायद पहले हासिल होता तो वे किसी तरह की लडाई में उतरते ही नहीं.
प्रेम की कमी से पैदा हुई संघर्ष की आदिम चिंगारी अब तो पूरी मानवता ही लील चुकी है, और यह आग धधकती रहे इसके वाजिब इंतजाम करने में हमारे चारों ओर सदियों कोशिशें होती भी रही हैं.
कितनी तसल्ली की बात है कि शान्ति और प्रेम की दुनिया अब मरीचिका लगने लगी है ...बाहर युद्ध जारी है ... स्थापित सत्ताओं के केंद्र ही नहीं, बल्कि हम सब भी शक्ति के अश्लील प्रदर्शन में व्यस्त हो रहे है ;जिसका अंतर्पाठ है कि " तू मुझसे कमतर है इसलिए मुझ जैसा बन या मेरे सामने झुक"
प्रेम का दरिया सूखने लगा है....उसी अनुपात में युद्ध की आग बढ़ चढ़ कर धधक रही है
.......लेकिन युद्ध का यह चरण कानफोडू धमाकों और चीखों के आर्तनाद का नहीं, बल्कि सर्वथा ध्वनिविहीन और अधिक मारक है .... जिसमे कहीं कहीं तो हम आगे बढ़ कर मृत्यु का स्वयं ही वरण कर रहे है, जैसे कि उससे ही हमें मुक्ति मिलने वाली हो !
ध्यान रहे युद्ध मुक्त नहीं करता .... वह केवल दो चीजें पैदा करता है:---
एक विजेता और दूसरा गुलाम !!

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प्रेम और ख़ुशी के घर में रहने वाले लोग कभी महलों की इच्छा नहीं करते. जिन्हें जीवन में भरपूर प्यार मिला हो और उन्होंने बांटा भी हो, उन्हें किसी भी तरह की सत्ता की भूख महसूस ही नहीं होगी.
भारतीय उपमहाद्वीप शुरू से इस मामले बहुत भाग्यशाली रहा है कि यहाँ दर्जन भर से ऊपर climatic zones हैं और हर तरह की प्राकृतिक सम्पदा के साथ मनुष्य के जीवन को आसान और सुखमय बनाने के साधनों की प्रचुरता रही है.
प्राकृतिक रूप से युरोप इतना भाग्यशाली नहीं रहा. वहां मनुष्य को जलवायु के चलते जीने मात्र के लिए सदा कठिन संघर्ष करना पड़ा, हालाँकि उसी के चलते उनमे नई खोजों और उद्योगों के विकास की वृत्ति पनपी. उद्योग जो शुरू तो मानव जीवन को आसान बनाने के लिए किये गए लेकिन बाद में युद्ध के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किये जाने लगे. इसीलिए यह धारणा भी कि मनुष्य के मूल में पाशविक वृत्तियाँ है और युद्ध करना उसका स्वाभाव है, यूरोपीय चिंतकों की ही देन है.
मशीनों की खोज और उद्योगों का विकास वैसे तो जीवन को आसान बनाने के लिए हुआ, जिसमे अपेक्षाकृत कम श्रम से अधिक वस्तुएं निर्मित की जा सकें, लेकिन नियंत्रण के अभाव ने इस व्यवस्था में एक भारी खोट पैदा कर दिया .
वह खोट यह था कि उत्पादन समाज के तात्कालिक उपभोग से बहुत अधिक होने लगा और उसे खपाना, उद्योग की निरंतर चलाये रखने के लिए एक आवश्यक शर्त बन गयी. यह सभ्यता में व्यापर और व्यापार-विनिमय में मुद्रा के चलन के बहुत बाद की बात है.
मनुष्य में कर्ज की अवधारणा के विकास के साथ ही मुद्रा का आविष्कार किया गया जिसने विनिमय को बहुत आसान बना दिया और उसकी गति भी तेज की. लेकिन बाद में, इसमें भी एक भारी खोट पैदा कर दिया गया. यह खोट उसे जारी करने वाले और उत्पादक श्रम से दूर रहने वाले एक वर्ग ने किया, जो चालाक और परजीवी था.
प्रेम से वंचित व्यक्ति, सत्ता और स्वीकार के लिए युध्दरत व्यक्ति, उत्पादन में सक्रिय भागीदारी न ले सकने की वजह से परजीवी ही होता है.
ऐसे परजीवी व्यक्तियों और समूहों ने ही समय के साथ मुद्रा के संवर्धन का नियम बनाया (जिसे आप ब्याज कह सकते हैं) और जरूरतमंद समूहों पर उसे आरम्भ में तो छल के माध्यम से, लेकिन बाद में ताकत के माध्यम से, उसे लागू किया.
आधुनिक सभ्यता के मूल में आये यही दो खोट बाद में कई तरह के असंतुलन का कारण बने जिन्होंने मनुष्य के दैनिक कार्य व्यापार को प्रभावित किया और कई तरह के युद्धों को जन्म दिया.
पहला-- बढ़ते उत्पादन को खपाने की चुनौती.
दूसरा --मुद्रा के कर्ज पर व्याज की अवधारणा के चलते उत्पन्न होने वाली कमी.
मौजूदा सभ्यता की हर समस्या इन्ही दो विसंगतियों की देन है.
दूसरी विसंगति को समझने के लिए इस पोस्ट के साथ-साथ ही जारी नीचे दिये गये लिंक में एक उदहारण पढना आवश्यक होगा जिससे आप वस्तु उत्पादन, मुद्रा, व्यापर और बैंकिंग के कील-पेंच आसानी से समझ आ जायेंगे.

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जिस तरह प्यार की कमी विग्रह और युद्ध को जन्म देती है, उसी तरह दैनंदिन मानवीय गतिविधियों में लगातार असफल होता आदमी परजीवी बनने की ओर मुड जाता है.
नतीजतन प्यार पाने और मानवीय कार्य-व्यापार में असफल आदमी युद्ध करने और गुलाम बनाने की तरकीबें करने लगता है.
इसी तरह सामाजिक पटल पर प्रेम के अभाव ने कर्ज की अवधारणा को जन्म दिया, जब किसी तरह की मानवीय सहायता या वस्तुओं के आदान प्रदान का लोग, लेखा-जोखा रखने लगे.
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1. कर्ज की अवधारणा
2. अनियंत्रित उत्पादन को खपाने की चुनौती.
3. मुद्रा के कर्ज पर व्याज की अवधारणा
इन तीन चीजों ने मिल कर, और निरंतर अनियंत्रित रहकर, मनुष्य के जीवन की दिशा बदल दी जिसे आज तक हम मोड़ नहीं सके है और निरंतर बढ़ते तकनीकी संजाल के चलते अब तो नियंत्रित भी नहीं कर सकते.
स्वतन्त्रता के मूढ़ पैरोकार नियंत्रण को ही स्वतन्त्रता का विलोम मानते है और यह नहीं समझते कि स्वतन्त्रता कोई अब्सोल्युट वैल्यू नहीं बल्कि बहुत से तत्वों पर निर्भर एक सापेक्ष धारणा है. आपकी स्वतन्त्रता तभी तक कायम रह सकती है जब तक की वह किसी दूसरे व्यक्ति की स्वतन्त्रता में बाधा न पहुंचाए.
नियंत्रण जरूरी है सभी मानव कर्म और वृत्तियों पर.
आखिर मनुष्य भी प्रकृति का ही एक अंग है और गौर से देखिये तो प्रकृति की संरचना में खुद ही स्व-नियंत्रण के उपादान मौजूद हैं और वह अपनी विसंगतियों को एक चक्रीय व्यवस्था के तहत नियंत्रित करती रहती है.
आज जो विसंगतियाँ हमें अपने समाज और जीवन में दिख रही हैं वे इसीलिए इतनी विकराल है क्योंकि हममें, उन्हें उनके आरम्भ में पहचानने की चेतना भी नहीं थी कि हम उन्हें नियंत्रित करने के कुछ उपाय करते.
और आज हम पूरी तरह से इन विसंगतियों की गिरफ्त में है और प्रेम से वंचित तथा परजीवी वर्ग पूरी तरह से हमारी सभ्यता पर काबिज है.
इस हद तक कि शक्ति का प्रदर्शन और प्रयोग, युद्ध में विजय और मनुष्य को गुलाम (नौकर) बनाना भी नैतिक मान लिया गया है.
यही नहीं,हर बड़ी और शक्तिशाली व्यवस्था अपने से छोटी व्यवस्था को लील लेना चाहती है और इसे नैतिक ही नहीं कानूनी मान्यता भी प्राप्त है.

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जनाब अगर ध्यान से देखिए तो समझ आ जायेगा
कि जीवन में प्यार और सफलता ही दुखों का मूल है :)
मैं कोई अध्यात्मिक बात नहीं कर रहा ठोस भौतिक और आर्थिक जगत की बात कर रहा हूँ, क्योंकि अध्यात्म के सहारे भी मानवता का कल्याण करने निकले लोग आखिरकार अपने भौतिक कल्याण में व्यस्त होकर आर्थिक शक्ति बन जाते हैं और उसके बाद राजनीतिक शक्तियों को भी उदरस्थ करने को तत्पर रहते हैं; तो क्यों न हम लोग आर्थिक मोर्चे की ही चर्चा में व्यस्त रहैं और पहले इसे ही बारीकी से समझें?
आखिरकार यही तो खुदा का दर है और सबको घूम फिर कर, लौट कर यहीं आना है, अपने-अपने ढकोसले और झंझट छोड़ कर. दूसरे लोक में स्वर्ग का दरवाजा खोलने वाले चित्रगुप्त भी हमारे कर्मों की "बैलेंस शीट" ही तो बनाते हैं !
तो बात यह थी कि प्यार और सफलता ही दुखों का मूल है--जिसके अभाव में मनुष्य क्रूर और परजीवी बनकर, समाज से कट कर उसके विरुद्ध हो जाता है, और वापस उसे जीत कर उन्हीं लोगों के बीच अपनी क्षमता को सिद्ध करने का प्रयास करने लगता है, जहाँ से उसे अस्वीकार और असफलता मिली थी.
जब कि प्यार और स्वीकार मिलते रहने से मनुष्य असफलता का दंश भूल कर वापस सामान्य जीवन में लौट सकता है.
जीवन के कार्य-व्यापार में श्रम के बाद मूल आवश्यकताओं की सहजता से पूर्ति और प्रेम की उपस्थिति जीवन में सकारात्मक स्पंदन बनाये रखती है.
लेकिन ऐसा हुआ नहीं, हमने असफल हुए लोगों अस्वीकार किया और उन्हें सहज प्रेम और सहयोग से जोड़े रखने के स्थान पर दिए गये सहयोग की मात्रा और मूल्य निर्धारित किये
तभी ऋण का आविष्कार हुआ और हमारी विकास यात्रा की दिशा बदल गई.
दरअसल ऋण ही हमारी आर्थिक दुनिया की सबसे पहली खोज है और मुद्रा दूसरी!


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यह, आगे आने वाली कहानी की पूर्व पीठिका का अंतिम पैराग्राफ है.
जरा अपनी आर्थिक दुनिया के विकास की सीढ़ियों को परखिये---
1. समाज में प्रेम, समावेशी वृत्ति की कमी और सामुदायिक विग्रह की शुरुआत
2. ऋण की अवधारणा का जन्म
3. विनिमय में आसानी के बहाने मुद्रा की खोज
4. समुदाय से विरत मनुष्यों द्वारा समुदाय के विरुध्द संघर्ष
5. परजीवियों द्वारा मौद्रिक ऋण पर व्याज की अवधारणा का जन्म
6. श्रम से असफल और समुदाय से विरत मनुष्यों द्वारा उपकरणों की खोज
7. मशीनों का विकास और मांग से अधिक उत्पादन में बढोत्तरी
8. अनियंत्रित उत्पादन और उसको खपाने की चुनौती.
9. मुद्रा आधारित विनिमय में अनावश्यक तेजी और बाजार का विकास
10. नए खपत क्षेत्रों और बाजारों की खोज का आरम्भ
यहाँ तक आते आते यूरोप के लोगों ने नयी दुनिया की खोज शुरू कर दी थी क्योंकि उनकी मशीनों का उत्पादन उनके बाजार की मांग से अधिक होने लगा था
हालाँकि इसके पहले चीन और भारत से यूरोप का व्यापार था लेकिन वह वास्तविक मांगों पर आधारित था.
परन्तु यूरोप में नित नयी मशीनों की खोज के चलते उत्पादन में आई भारी बढोत्तरी को खपाने की चुनौती उत्त्पन्न हुयी जिसको संघर्ष के माध्यम से अंजाम देते हुए व्यापार की दिशा मोड दी गयी जो आज तक कायम है.
अब इसके बाद हम अपनी कहानी उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से शुरू करेंगे, जब यूरोप एशिया और अफ्रीका में अपने उत्पादों को खपाने और यहाँ से प्राकृतिक सम्पदा को लूटने के खूनी खेल में व्यस्त था

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