Friday, January 27, 2017

मुक्त बाजार से मुक्ति--3: उनका पिरामिड उलट दीजिये

दुनिया भर के समाजशास्त्रीय और अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों को धूल चटा जाईये और सिर्फ यह सोचिये कि आप अपने लिए कैसी जिंदगी चाहते हैं और अपने लिए कैसी दुनिया ? करेंसी और बैंकिंग के जिस स्कैम ने आज हमें और आपको घेर रखा है और हमारी जिंदगियों को सुविधा पूर्ण बनाने के नाम पर वह हमारी साँसों तक को जिस तरह डिक्टेट कर रहा है, क्या वह आपको पसंद आ रहा है ? क्या आप स्वतंत्र हैं ? अपनी मर्जी की जी पा रहे हैं या फिर दिन रात मेहनत करके, बदले में मिली करेंसी से अपनी जरूरत और विलासिता के लिए चीजें जुटाने वाली एक मशीन बन चुके हैं ? असलियत यह है कि आप और हम उनके बनाये हुए सिस्टम में फिट होकर उत्पादन और उपभोग के चक्करदार क्रम में निरंतर घिसते हुए पुर्जे से ज्यादा हैसियत नहीं रखते !
मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैसलो ने मनुष्य की जरूरतों का एक पिरामिड बनाया और हमें बताया कि पिरामिड में नीचे से शुरू करके ऊपर की ओर जाते हुए एक एक करके मनुष्य की जरूरतें पूरी होंने पर ही मनुष्य पूर्णता को प्राप्त होता है और उसे उच्च मानवीय मूल्यों के दर्शन होते हैं. चित्र में दिए पिरामिड को ध्यान से देखिये आप खुद-ब-खुद समझ जायेंगे. मोटे तौर पर मैस्लोवेँयन पिरामिड ऑफ़ नीड्स के अनुसार यदि आपकी शारीरिक जरूरतें जैसे--सांस, भोजन, सेक्स और सुरक्षा--नहीं पूरी हुयी हैं तो आप जीवन में उच्च्चतर मूल्यों जैसे प्यार, आत्मसम्मान, ज्ञान और स्वतंत्रता की सोच भी नहीं सकते !
अब जरा सोचिये अगर ऐसा ही होता तो अभाव और गरीबी में जीने वाला कोई भी कभी किसी उच्चतर अनुभव को प्राप्त ही नहीं हो सकता था. कबीर और रैदास तो होते ही नहीं, भारत ही क्या दुनिया के हर कोने से भयंकर गरीबी और संघर्ष झेलकर और उसी में पलकर, सैकड़ों साहित्यिक, अध्यात्मिक, वैज्ञानिक और खेल जगत की प्रतिभाओं ने जन्म लिया और उभरीं ही नहीं बल्कि अपनी अपनी जगह से अब्राहम मैसलो के इस सिद्धान्त को मुंह चिढा रही हैं....
लेकिन आज भी अमेरिका के पांच-पांच विश्वविद्यालयों में दंड पेल चुके मनोविज्ञान के इस प्रकांड पट्ठे की “Maslow's hierarchy of needs” बाकायदा दुनिया भर में रेफर की जाती है और छात्रों को पढाई जाती है.
अब यह ब्लॉग पोस्ट जिस बात से शुरू हुयी थी उसे इस सिद्धांत में मिलाते हुए इसकी बखिया उधेड़ेंगे और जरा समझेंगे कि इसे कैसे वे लोग अपने हक़ में इस्तेमाल करते हैं और फिर इसी को पकड़ कर हम दूसरे सिरे से कैसे अपने हक़ में इस्तेमाल कर सकते हैं ........वापस पाने के लिए अपना जीवन, अपनी स्वतंत्रता और ख़ुशी .......
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अब्राहम मैसलो का पिरामिड एक सिद्धांत हो या हायीपोथेसिस-- इसको कोई भी नाम दे लीजिये सिर्फ एक रेफेरेंस पॉइंट है, जिससे हम चीजों को समझना शुरू करते हैं और हमारे बाजारू शोषक हमें समझाना. कल की पोस्ट के कमेन्ट में सरफराज अनवर ने मैस्लोवियन पिरामिड को चुनौती देने वाले कबीर, रैदास आदि की सफलता को समझने के लिए, black swan phenomenon को समझने की सलाह दी.
दरअसल black swan phenomenon भी एक तरह का पोंगा सिद्धांत है जिसे स्टॉक ट्रेडर नसीम निकोलस तालिब ने 2008 की अमरीकन तबाही और उसके पीछे अमरीकी फाइनेंसियल सर्विस कंपनियों की धोखेबाजी को छिपाने के लिए गढ़ा. निकोलस ने रोबोटिक ट्रेडिंग के लिए कम्प्यूटर मॉडल बनाने में जिंदगी भर लगे रहे फिर भी न तो जिम्बावे के हाइपर इन्फ्लेशन और न ही 2008 के अमरीकी मेल्ट डाउन को ही समझ पाए थे इसलिए उन्होंने ये नयी थ्योरी पकड़ा दी. इसके अनुसार “black swan is an event or occurrence that deviates beyond what is normally expected of a situation and is extremely difficult to predict.” जब कि कोई भी घटना बिना कारण नहीं होती और न ही नियम का अपवाद होती है, उसके बीज सदा पिछली परिस्थितियों में छिपे होते हैं जिन्हें देखने समझने के लिए कम्प्यूटर की मशीनी इंटेलिजेंस नहीं मानवीय समझ की जरूरत पड़ती है.
फिलहाल मेरा मानना है कि सभी बेईमान और ईमानदार विद्वानों के सारे सिद्धांत जीवन से ही प्रतिपादित होते हैं और जीवन उनके आधार पर नहीं चलता. मनुष्य लगातार स्थापित सत्य को चनौती देता रहता है और नए सत्य की रचना करता रहता है.
अब मस्लोवियन पिरामिड को उलटने की बात करते हैं और उस प्रश्न से अपनी बात शुरू करते हैं जो कल की पोस्ट के आरम्भ में की गयी थी.
आप कैसा जीवन चाहते हैं और वैसा जीवन जीते हुए कैसी दुनिया आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ कर जाना चाहते हैं? कहीं आप अपनी आनंद और संतुष्टि की खोज में जीवन के मूलभूत अधारों को ही तो नहीं नष्ट कर रहे? पृथ्वी नामक ग्रह और उसके संसाधनों का, जिनका उपयोग करते हुए आप बन्दर से आदमी बन गए अभी भी बंदरों की तरह ही क्यों उपयोग कर रहे हैं? यह समय है टटोलने का कि कहीं एक अदद पूँछ अभी भी तो आपके पीछे नहीं चिपकी रह गयी, जो आपको हर चीज की अंधी नक़ल करने के लिए उकसा रही है ?
मैस्लोवेयन पिरामिड को उलटी तरफ से लागू करना शुरू कीजिये, सभ्यता का व्याकरण बदल जायेगा और जीवन का भी, हाँ लेकिन उसके पहले अपने पीछे चिपकी हुयी पूंछ हटानी होगी. अगली पोस्ट तक सोचिये कि कैसे हटायेंगे?
कबीर रैदास और दुनिया के हजारो साधारण लोग जो जीवन में ऊच्च्तर अनुभवों को जीते आये हैं उन्होंने ऐसा ही किया है और आज भी करते हैं.
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अगर जीवन का एकमात्र उद्देश्य मैटेरिअल कम्फर्ट यानि सुविधा भोग ही करना है तो आज औसतन पचास-साठ हजार महीना कमाने वाले जितनी सुविधा भोग पा रहे हैं, उतनी दो सौ साल पहले इंग्लॅण्ड के राजपरिवार को भी नसीब नहीं थी. जरा सोचिये कि तमाम भौतिक सुखों से लैस होने के बावजूद भी दुःख और खालीपन का रोना क्यों रोते हैं लोग? क्या जीवन स्तर (quality of life=the standard of health, comfort, and happiness) सिर्फ वस्तुओं और उपभोग से निर्धारित होता है? अगर ऐसा होता तो वातानुकूलित कमरे में नरम गद्दे पर लेटे हुए मनुष्य सर्वाधिक उल्लास का अनुभव कर सकता. लेकिन ऐसा होता नहीं है, तो जाहिर है कुछ अन्य तत्त्व भी हैं जो हमारे जीवन की सार्थकता और ख़ुशी के वाहक हैं.
जीवन में सार्थकता और ख़ुशी का अनुभव करवाने वाले तत्त्व हर व्यक्ति के लिए नितांत निजी और अलग-अलग होते हैं जो उस व्यक्ति के अपने जीवन की विकास यात्रा के हिसाब से स्वतः निर्धारित होते चलते हैं. आपने अपना जीवन किस मानसिक और भौतिक मुकाम से शुरू हुआ और आप उसे किधर लेकर चल रहे हैं, आपको होने वाले अच्छे बुरे अनुभव इसी पर निर्भर करेंगे.
सुख और दुःख का अनुभव जीवन में एकंतारिक है (एक के बाद ही दूसरे का आना) और अनिवार्य भी; ( अन्यथा एक के बिना दूसरे की पहचान भी कैसे होगी?) जो अपनी इस चक्रीय व्यवस्था से जीवन को समृद्ध निरंतर समृद्ध करता चलता है. अपने प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में स्वतंत्र, स्वस्थ्य, सौहार्दपूर्ण साहचर्य के साथ यह समृद्धि पाना और उसे बांटना ही जीवन का पूर्णकाम होना है.
स्वतंत्रता भी एक सापेक्ष स्थिति है. किसी व्यक्ति, कुनबे, कबीले या राज्य की स्वतंत्रता तभी तक कायम रह सकती है जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति, कुनबे, कबीले या राज्य की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करे. इसलिए अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए दूसरे की स्वतन्त्रता को बनाये और बचाए रखना भी उतना ही जरूरी है. प्रकृति से प्राप्त जीवन के साथ प्रकृति का सामंजस्य बनाये रखने की हमारी जिम्मेदारी भी इसी श्रेणी में आती है.
प्रकृति की स्वतंत्रता में जितना हस्तक्षेप मनुष्य करेगा, प्रकृति भी उसकी स्वतन्त्रता में उतना ही हस्तक्षेप करेगी और यह लड़ाई मनुष्य जीत नहीं सकता क्योंकि वह रचनाकार (creator) नहीं है मात्र अनुगामी है. ध्यान दीजिये हमारा हर आविष्कार आज भी किसी न किसी प्राकृतिक रचना से ही प्रेरित है और निरंतर विकसित होते विज्ञान ने अब तक सिर्फ प्राकृतिक घटनाओं को समझने का ही काम किया है; किसी नयी परिघटना को जन्म नहीं दिया.
इस संक्षिप्त और प्रवचन जैसे लगने वाले वक्तव्य को हजम करने के बाद ज़रा वर्तमान की ओर लौटिये और प्रकृति का ही एक उदहारण देखिये--
मधुमक्खी जिस फूल से रस लेती है उस फूल को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाती, उलटे फूलों के पराग की वाहक बनती है जिससे उस पौधे की संतति बढती है. वापस वह शहद बनाती है लेकिन अपनी निजी आवश्यकता से बहुत ज्यादा, इतना कि वह मनुष्य के लिए भी उपलब्ध होता है. संक्षेप में जितना वह प्रकृति से लेती है उससे अधिक देती है और साथ में प्रकृति का काम भी करती है. मनुष्य को मधुमक्खी से कुछ सीखना चाहिए.
तो वापस मैस्लोवेयन पिरामिड की तरफ आईये, उसे पकड़ कर उलट दीजिये और उस पर मधुमक्खी की तरह बैठ कर अपना छत्ता बुनिए, आपका जीवन अधिक ठंडा, मीठा और सुखदायी होगा.
हाँ लेकिन आज के समय में, इसके साथ ही आपको अपने चारों तरफ अपनी स्वतंत्रता के विरुद्ध चल रही साजिशों से सावधान रहना होगा, उसका प्रतिरोध भी करना होगा और जाहिर है इसमें कुछ collateral damage तो होगा ही.
अब इसके बाद विरोध की शैली और उसकी राजनीति की बात करेंगे नयी श्रंखला में

Saturday, January 21, 2017

एक राष्ट्र का फर्जी पति

अमेरिका में प्रेसिडेंट का चुनाव सिर्फ तमाशा है ,,, चुनाव के दौरान तामाशा और उसके बाद भी तमाशा ही होता है .... आज से नहीं कई दशकों से.
छुटके जार्ज बुश के दौरान फ्लोरिडा में हुयी चुनाव की धांधली के विरोध में तो शपथ ग्रहण के लिए जाते हुए उनका रास्ता तक जाम कर दिया गया था. ट्रम्प के खिलाफ सड़कों पर उतरे लोगों का तमाशा उसी क्रम में समझा जाना चाहिए, जिसका न कोई असर है, न परिणाम. आम अमरीकी की वहां के लोकतंत्र में कोई भागीदारी नहीं है. यह सब फेडेरल रिजर्व पर हावी बैंकरों और वाल स्ट्रीट के कारिंदों का खेल है जिसे वे ही दोनों तरफ से खेल रहे हैं. जिसको वे चाहे कान पकड़कर आगे ले आते हैं और अमरीका वालों से बोलते है देखो ये रहा तुम्हारा प्रेसिडेंट- अब इसी से चार साल काम चलाओ.
देश के लिए सभी आर्थिक निर्णयों को प्रभावित करने वाले पदों पर भूतपूर्व बैंकर ही नियुक्त होते आये हैं और यह नियुक्ति प्रेसिडेंट ही करता रहा है. रूसवेल्ट के बाद सभी राष्ट्रपति बैंकरों और कंपनियों के हाथ के खिलौने ही साबित हुए हैं और जिसने भी अलग हटने की कोशिश की उसे केनेडी की आसानी से हटा दिया गया.
2007-2008 की आर्थिक तबाही और करदाताओं के 600 बिलियन डॉलर की बेल आउट मनी को सोख लेने के बाद ओबामा को गमले में बाकायदा रोपा गया क्योंकि बुश के ज़माने से संचित जनाक्रोश को शांत करने के लिए यह स्क्रिप्ट की मांग थी. और वैसे भी जनता जुटे खाकर थक चुकी थी और प्याज खाने की मांग कर रही थी. यानी यह पारी वैसे भी किसी डेमोक्रेट को दी जानी थी. रियल एस्टेट स्कैम में सबसे ज्यादा अश्वेत गरीब और निम्न मध्यवर्ग तबाह हुआ था और उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था इसलिए ओबामा की शक्ल में उनको एक उम्मीद परोसी गयी अपने आठ सालों के कार्यकाल में ओबामा ने उनके लिए क्या किया, अगर आपको पता हो तो बताएं.
अब रेपब्लिकन चाहिए था लेकिन लोगों में आक्रोश कायम था इस लिए खेल दूसरा खेला गया. अब कोई ऐसा चेहरा चाहिए था जो थोडा excitement बनाये और मूल विषयों से ध्यान भटकाए, इसलिए ट्रम्प को वास्तव में सिर्फ जनता को इधर उधर हिलाने डुलाने और भ्रमित करने का अजेंडा देकर कुर्सी सौंपी गयी है. ऊंची ऊंची और आलतू फालतू बातों से यह जोकर सिर्फ जनता को बहलायेगा किसी घटिया फिल्म के प्लाट की लाइन पर. न मेक्सिको की सीमा पर दीवार बनेगी और न अमरीकी आउटसोर्सिंग कम होगी. ये सब नारे थे जिनकी आड़ में जनता को ठगा गया. जब तक अमरीका के बाहर सस्ती दर पर मजदूर मिलते रहेंगे, अमरीकी इलेक्ट्रोनिक्स कंपनियों के सामान ताईवान और चीन में बनेगे और कपडे भारत, बांग्लादेश, पकिस्तान और चीन में सिले जायेंगे. यही नहीं भारत पाकिस्तान और बंगलादेशी छोकरे छोकरियाँ मुंह में पेन्सिल रख कर अमरीकी एक्सेंट में अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करते हुए, यहाँ के कॉल सेंटर्स को भी आबाद रखेंगे. रूस को अपना दुश्मन घोषित करना दरअसल वह चाल है जिसकी आड़ में बाकी जुमले दबा दिए जायेंगे या दब जायेंगे.
ट्रम्प को लाने के लिए सबसे पहले एक बढ़िया मनोवैज्ञानिक मार्केटिंग टूल का भी इस्तेमाल किया गया जिसको मैं maximum visibility and high recall imprint on target memory कहता हूँ और मैंने खुद इसका इस्तेमाल अपने एडवरटाइजिंग केरियर में किया है. इसमें किसी भी की तरह से प्रोडक्ट का नाम और छाप पब्लिक विज़न में बनाये रखा जाता है चाहे इसके लिए किसी विवाद का ही सहारा लेना पड़े. इसमें प्रोडक्ट की ब्रांड इमेज की परवाह न करते हुए सिर्फ उसका नाम अधिकतम बार रिपीट करना या करवाना होता है. ब्रांड इमेज बाद के ट्रीटमेंट से सुधार ली जाती है.
अमेरिका के चुनाव में भी ट्रम्प से कई विवादित बयान दिलवा कर यही किया गया और हिलेरी के समर्थक उसके शिकार हो गए. हुआ यह कि विवादित बयान देने से ट्रम्प का नाम हिलेरी से ज्यादा खबरों में बना रहा और जवाब में उसके विरोधियों ने भी उस पर व्यक्तिगत प्रहार कर के उसी का नाम अधिकतम बार प्रसारित होने में मदद की और ट्रम्प को मैक्सिमम विजिबिलिटी बेनिफिट दिलाई. लेकिन जब यह तकनीक वोट्स को मोड़ने में कामयाब नहीं हुयी तो फिर वह आखिरी जुगाड़ अपनाया गया जो 1824 से अबतक पांच बार अपनया जा चुका है.
वैसे तो हर पचास अमरीकी राज्यों के चुने गए इलेक्टर्स अपनी ही पार्टी के प्रेसिडेंट को चुनते हैं और ऐसा करने का उन्हें संवैधानिक निर्देश भी है लेकिन अमरीका में 21 राज्य ऐसे हैं जिनमे इस बारे में कोई स्पष्ट क़ानून नहीं है. बैंकर और कंपनियों के दलाल मनमुताबिक प्रेसिडेंट का चुनाव असफल होते देख इसी बात का फायदा उठाते हुए इन राज्यों के इलेक्टर्स को अपने पक्ष में पटा लेते हैं और उनका एजेंडा चलता रहता है. अगर यहाँ भी बात न बनी तो अपर हाउस बहुमत से प्रेसिडेंट चुनता है और यह कोई छिपी बात नहीं है की अमरीकी अपर हाउस किस वर्ग के लोगों से भरा पड़ा है. एक और ख़ास बात है कि आज दोनों अमरीकी सदनों में जितने सदस्य हैं उसके चार गुने बैंकरों और वाल स्ट्रीट के दलाल उनके पीछे 365 दिन सक्रिय रहते हैं.
इस तरह अमरीकी प्रेसिडेंट के चुनाव में जनता के बहुमत को ट्रम्प करके करके अपना मन मुताबिक जमूरा इंस्टाल करने के लिए त्रिस्तरीय जुगाड़ भिड़ा भिड़ाया है जो कई दशकों से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है.
दुनिया भर में इसी अमरीकी ब्रांड की डेमोक्रेसी बाँटी जा रही है, और हमारे महान देश को भी इसका प्रसाद मिलता ही रहा है!


Friday, January 13, 2017

मुक्त बाजार से मुक्ति-2: ठेंगा दिखाइए

पिछले साल के आखिरी दिन मैंने कहा था कि आपके जीवन के हर पहलू का शोषण कर रही इस छल-कपट और ढोंग पर आधारित अर्थव्यवस्था का सामाधान सीधा है पर आसान नहीं है. अब एक-एक करके उन उपायों पर गौर करते हैं जो हम अपनी तौर पर अपना सकते हैं.
आसान नहीं है अपने चारों ओर लहलहाती लालच की खेती से आँखें मूँद लेना और जीवन में सहजता ले आना, जबकि व्यक्तिगत स्तर पर सबसे प्रभावी यही उपाय है जिसका दायरा बढाकर सामूहिक किया जा सकता है. आर्थिकी की सही समझ को प्रसारित करना होगा और अधिक से अधिक लोगों को इसके दायरे में लाना होगा. उन्हें यह बताना होगा कि मुद्रा धन नहीं है बल्कि धन को लूटने का साम्राज्य के विस्तार का हथियार है. हमारे जंगल, जल और खनिज स्रोत, उपजाया गया अन्न और सामान्य जीवन यापन के अन्य उपादान ही धन हैं, जिन पर कब्जे के लिए कर्पोरेट्स लगातार कोशिश कर रहे हैं और चंदाखोर सरकारों के माध्यम से कामयाब भी हो रहे हैं. अपनी जीवन शैली में अधिकतम बदलाव लाईये और इन्हें बाकायदा ठेंगा दिखाईये.
लालच पर लगाम लगते और उपभोग कम होने के साथ ही खर्च पर काबू हो जायेगा. जब अधिक से अधिक लोग ऐसा करेंगे तो अर्थव्यवस्था का तेजी से घूमता पहिया धीमा होगा. जाहिर है इसके बाद सरकार और पूंजीपतियों/व्यापारियों की तरफ से अपने माल को खपाने की कोशिशें भी तेज होंगी लेकिन यही मोर्चा है और इस मोर्चे पर सामान्य जन उन्हें मात्र संयम और समझदारी से हरा सकते हैं. जब संयम ऊपर से आरोपित नहीं बल्कि सही समझ से पैदा होता है तभी वह मजबूत होता है. 
यह पहला कदम है, किसी भी प्रकार के मुखर विरोध से पहले का कदम, अन्यथा वे आपके विरोध के प्रयासों को भी अपनी वित्त पोषित NGOs के द्वारा प्रायोजित करके कब्जिया लेंगे और आप देखते रह जायेंगे, जैसा आज तक होता आया है.
इस पहले कदम के परिपक्व होने के बाद ही वास्ताविक विरोध की शुरुआत की जा सकती है.  विरोध के तौर-तरीके क्या हों इस पर गौर करने के पहले ठेंगा क्यों दिखाया जाए इस पर  विस्तार करते हैं ..
ठेंगा दिखाने का कारण -1
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फ़िएट मनी (यानि जिस मुद्रा को छापने के लिए उसके बराबर सोना आरक्षित रखना जरूरी न हो, आज पूरे संसार में फ़िएट मनी ही चलन में है) की सप्लाई, देश के कृषि और औद्योगिक उत्पादन के मुकबले में, सिस्टम में जितनी ज्यादा बढ़ेगी उसी अनुपात में मुद्रा स्फीति भी बढ़ेगी. इस पर सरकारें, बैंक और व्यापारी चाहते हैं कि आप उपभोग बढाएं, बचत की बजाय खर्च अधिक करें, बेशक कर्ज लेकर करें. अंधाधुंध प्रचार से बदले सामाजिक बोध के चलते कर्ज लेना अब कोई प्रतिष्ठा गवाने वाला काम नहीं रहा. EMI की जिन्दगी हमें आसान लगने लगी है. हमारे जीवन में वह चीजें काफी पहले आने लगी हैं जिन्हें हम पूरी जिंदगी की बचत के बाद ही शायद खरीद पाते. इसको सब लोग प्रगति कहते हैं.
अब जरा सोचिये, मुनाफा और व्याज जो हमारी मान्यता में आज सबसे जायज तत्त्व है, मुद्रा की चाल के साथ मिल कर कैसे खेल करता है और उसका अंतिम परिणाम क्या होता है. क्या हो सकता है. यहाँ पर घुड़सवार की कहानी फिर याद कीजिये.
आपने बैंक से कर्ज लेकर कार खरीदी, कार आपकी जरूरत थी या विलासिता या लालच---ये आप तय करें, लेकिन आपने कार खरीदी और इस्तेमाल करके खुश हैं. बैंक अपना ब्याज पाकर खुश है. कार बनाने वाली कंपनी भी अपना मुनाफा पाकर खुश है, फिर परेशानी किसको है? लेकिन परेशानी तो है और दिनों दिन बढ़ रही है.
ध्यान दीजिये आपने जो लिया उससे ज्यादा दिया, जिसकी वजह से बैंक और व्यापारी का मुद्रा भण्डार बढ़ा और उनके पास और चीजें खरीद सकने या कर्ज दे सकने की क्षमता आई. आपने जो दिया वह एक मूल्यहीन और आभासी वस्तु थी जिसे आपने किसी के श्रम कर के प्राप्त किया था लेकिन आपको जो मिला वह आभासी वस्तु नहीं है. वह जिन चीजों से बना है वे धरती से आयी हैं, लोहा, रबर, ताम्बा, एल्युमीनियम सभी कुछ.
अंधाधुंध उत्पादन और खपत बढ़ने से (क्योंकि सब कुछ बढाते जाना ही हमारा लक्ष्य है क्योंकि वही हमारे लिए प्रगति है), और फियट करेंसी के बदले सब कुछ उपलब्ध होने से प्राकृतिक सम्पदा से धरती दिन रात खाली होती जा रही है, जल संसाधन सूखते और दूषित होते जा रहे हैं, हरियाली कम हो रही है, ठीक हवा तक उपलब्ध नहीं है.
ऊपर से सरकारों और व्यापारियों का गठजोड़ आपको अधिक से अधिक खर्च के लिए उकसा रहा है, सस्ते कर्ज देने की बात कर रहा है. इसलिए आपकी अर्जित आभासी, मूल्यहीन मुद्रा हो या बस्तुएं उन दोनों की खपत सीमित कीजिये, नहीं तो बैंक और व्यापारी (सरकारों का नाम इसलिए नहीं लिए क्योंकि सरकारें आपकी नहीं उन्ही की हैं) मिलकर धरती की सारी प्राकृतिक सम्पदा लूट कर आखिर में आपको भी नंगा ही कर देंगे.
इसलिए अब ठेंगा दिखाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.

ठेंगा दिखाने का कारण -2
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वे कहते हैं --”हमारे लिए काम करो, बदले में हमसे कागजी या डिजिटल मुद्रा लो, हमारी ही बातें सुनो, जो हम समझायें वही समझो, जो हम कहें वही तुम्हारे लिए अच्छा है, क्योंकि हमारे एक्सपर्ट, हमारे फ़िल्मी हीरो, हमारे खिलाडी हीरो, और हमारे बाबा, हमारे ज्योतिषी तुम्हारी जिंदगियों के बारे में तुमसे ज्यादा जानते हैं. हजारो सालों से संचित पारंपरिक ज्ञान कुछ नहीं है, तुम्हारे बुजुर्ग कुएं के मेढक थे, तुम दुनिया के समंदर की मछली बन जाओ, आओ हमसे मिलो हम बड़ी मछलियाँ हैं तुम्हारी हिफाजत हम करेंगीं. इसलिए जो हम बनाएं वो उसी हमारी दी हुयी मुद्रा से खरीदो. जरा जल्दी-जल्दी खरीदो. स्पीड बहुत जरुरी है, सुस्ती ठीक नहीं काम में सुस्ती, खर्च में सुस्ती, दौड़ते रहो तुम्हे आगे जाना है, यह मत पूछो किससे आगे, आगे जाओगे तो पता चल जायेगा.
है न मजेदार बात? गोल-गोल दुनिया में सीधी चाल से दौड़ते रहो !
वे फेंकते रहे तुम लपेटते रहो.
वे अपनी कागजी मुद्रा में (जिसकी कुल औकात एक पोस्ट डेटेड चेक जैसी है जो कभी बैंक में भुनाया नहीं जायेगा) स्पीड चाहते हैं. वे अपनी डिजिटल मुद्रा में भी स्पीड चाहते हैं. जिससे तेजी से आवाजाही में वह फिन्टती रहे और मलाई उतर कर उनके पास जाती रहे.
तेजी से मुद्रा फेंटने के चक्कर में आप अपनी जिंदगी नहीं जी पा रहे हैं. आपके बीच से मनुष्यता का पानी सूखता जा रहा है. फर्जी मूल्य हमारे बीच में प्रतिष्ठित हो रहे हैं. समाज में प्रेम और सहयोग के बदले स्पर्धा को महत्त्वपूर्ण स्थान मिल रहा है. एक दूसरे को काट कर अपने को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ है.
कोई यह नहीं बताता, कोई यह नहीं समझता कि पिरामिड के शीर्ष पर जो नहीं पहुंचे (और बहुत लोग नहीं ही पहुचेंगे क्योंकि यह संभव भी नहीं है) उनको भी जीने का उतना ही अधिकार है. एक फालतू से संघर्ष में जूझते हुए हम यह अपनी नहीं किसी और की लडाई लड़ रहे है. इसमें हमारे साथ ही हमारा विरोधी भी हारेगा और जीतेगा कोई और! बड़ी महिमा इस बात की भी गई जाती है कि जीवन संघर्ष है.
खुशहाल जिंदगी को संभव बनाने वाले साधन छिनते जा रहे हैं, समय भी छिनता जा रहा है हमारे पास एक दूसरे के लिए समय नहीं बचा तो समाज कैसे बचेगा? कलाएं और संस्कृतियाँ और भाषाएँ कहाँ बचेंगी ? जीवन में विविधता कहाँ बचेगी? रंग कहाँ बचेंगे?
याद पड़ता है कि पिछली बार कब आप फुर्सत में अपने आत्मीय संबन्धों में उतर पाए? जीवन को महसूस कर पाए?
इसलिए भी उन्हें अब ठेंगा दिखाने की सख्त जरूरत है !