Monday, December 12, 2016

अर्थशास्त्र नहीं झटका शास्त्र--8: भारत में मध्यम गति के झटकों की शृंखला

अगर रोटी सेंकनी है तो तवा तो गर्म रखना पड़ेगा, और रोटी जल न जाए  इसलिए बीच बीच में तवा ठंडा भी होता रहना चाहिये और उसपर तेल पानी के छींटे भी पड़ते रहने चाहिए.


संघ, उसके सहयोगी संगठन और भाजपा इसी तर्ज पर मुद्दे पैदा करते या उन्हें गोद लेते हैं, इस्तेमाल करते हैं और फिर उनकी उपयोगिता ख़त्म हो जाने पर उन्हें बेवफा प्रेमी की तरह छोड़ देते हैं. अपने नेताओं के साथ भी वे यही करते हैं, जिनके उदहारण आप वर्त्तमान के मर्तबान में ही झाँक कर देख सकते हैं.


इनकी धुन नहीं बदलती पर गाने बदलते रहते है.


चूँकि संघ और भाजपा अपने किसी भी उपक्रम में प्रयोगधर्मी या मौलिक नहीं हैं और केवल अज्मूदा तकनीकों को ही इस्तेमाल करते हैं इसलिए 1940 से लेकर अब तक विश्व के अलग अलग हिस्सों में दर्जनों बार आजमायी गयी झटका तकनीक को उन्होंने अपने लिए मुफीद पाया है .


अगर आप झटका शास्त्र--1 से 7 तक पढ़ चुके हैं तो उनका प्रभाव और अभीष्ट अब तक समझ चुके होंगे. यदि नहीं तो कृपया समय निकाल कर उसे पढ़ें और जानें की राजनेताओं द्वारा जन चेतना को कुंद या भ्रमित करने वाले झटको का प्रयोग तवा गर्म करने के लिए और वर्गीय या सांस्कृतिक श्रेष्ठता अथवा देशभक्ति के लासे को गर्मी से पैदा हुयी जलन को शांत करने के लिए कैसे किया जाता है; जिससे समाज में उत्तेजना व्याप्त रहे, वास्तविक घटनाएं खबर न बन सकें और झटके, उत्तेजना और लासे के घालमेल के पीछे उनका अपना मकसद पूरा होता रहे. राम मंदिर, लव जेहाद, कश्मीर, सेना, पाकिस्तान और अब नोट बंदी ये सब ऐसे ही झटकों के ही नमूने हैं.... जो पहले लाये गए और बाद में भुलाये गए .


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किसी सुघड संगीत, चित्र या किसी भी कार्ययोजना की संरचना की भांति के संघ/भाजपा की कार्यशैली के भी तीन आयाम हैं.--- पृष्ठभूमि (background), मध्यभाग (middle ground) और मुख्य आकर्षण (highlight).


पृष्ठभूमि के तौर पर उसने 1952 से ही गोरखपुर में सरस्वती शिशुमंदिर की शुरुआत की, ध्यान देने की बात है इसी गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना 1923 में और गीता विद्यालय की स्थापना 1946 में कुरुक्षेत्र में हो चुकी थी। बाद में सरस्वती शिशु मंदिरों का जाल बढ़ता गया, समितियां बनती गयीं, (पंजाब एवं चंडीगढ़ में सर्वहितकारी शिक्षा समिति और हरियाणा में हिन्दू शिक्षा समिति बनी) 1977 में विद्या भारती की स्थापना दिल्ली में हुयी और सभी प्रदेश समितियां विद्या भारती से सम्बद्ध हो गईं।


पृष्ठभूमि का यह गठन नीचे से ऊपर की और किया गया.. जिसका मकसद केवल एक था-- चुपचाप समाज हित और संस्कृति रक्षा की आड़ में संकीर्ण हिन्दू विचारधारा को पोषित करना और नयी पौध के बीच में उसका संचार करना. वास्तव में यह संस्कृति रक्षा नहीं थी और न है बल्कि अपनी प्रतिगामी सोच के लिए नन्हे रोबोट्स तैयार करने का प्रयास है, जैसा मोंट पेलेरिन सोसाइटी और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की रोड्स स्कोलार्शिप करती है.
यहाँ समय नोट कीजिये ....1977 में ही जनसंघ ने जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के माध्यम से केंद्र में सरकार के प्रमुख घटक के रूप में जगह बनायीं और 1977 में ही विद्या भारती की स्थापना करके विभिन्न प्रदेशों में फैली शिक्षा समितियों को इससे जोड़ा गया जिससे छात्रों के पाठ्यक्रम और विषयवस्तु पर केन्द्रीय नियंत्रण रखा जा सके और उन्हें मनमर्जी इतिहास और दूसरे तथ्य पढाये जा सकें...
आज यह एक मजबूत पृष्ठभूमि है जिस पर तस्वीर का मध्यभाग और मुख्य आकर्षण टिका है...पृष्ठभूमि ऐसे मष्तिष्क और ऐसी आबादी तैयार कर रही है जो मध्यभाग में प्रायोजित झटकों को न केवल प्रसारित करें बल्कि उनके दुष्प्रभावों की न्युट्रलायिज करने में भी मदद करें.
मुख्यधारा में आज बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों से लेकर प्रोफेशनल लोगों तक में उनकी शिशुमंदिर की शिक्षा की छाप देखी जा सकती है. ये ऐसा पतनशील भजनशील मध्य वर्ग बनाते हैं जो किसी तथ्य या घटना की गहराई में गए बिना अपना एक वैचारिक सांचा रखता है और हर चीज पर तुरंता प्रतिक्रिया देने को तैयार बैठा रहता है और हर चीज के तुरंत हल की मांग करता है.
मूर्ख, बेसब्र और भावनात्मक आवेश से सिंचित जमीन में झटकों की खेती आसान और उपजाऊ होती है. देखिये कि कैसे 1977 से शुरु होकर यह कार्यक्रम एक दशक में इतना परिपक्व हो चुका था कि  बाबरी ध्वंस का परीक्षण सफल रहा और उसके बाद एक चेन रिएक्शन शुरू हो सकी ....जो आज तक जारी है...

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