Saturday, December 10, 2016

शुरुआत: चिली में हस्तक्षेप और तख्तापलट

कोई साल भर पहले की बात है कि फेसबुक में एक मुक्त बाजार से सम्बंधित एक पोस्ट पर कोई अंट शंट कमेंट्स करने लगा… मैंने उसका जवाब दिया और साथ में कहा कि “अरे भाई कोई इन्हें चिली का इतिहास पढाओ रे!”  इसके जवाब में मेरे मित्र शशि भूषण सिंह ने कहा कि जो अपना इतिहास नहीं पढ़ते उनसे आप चिली का इतिहास पढने को कह रहे हैं.अगले दिन मैंने इस बात की गंभीरता को सोचा और अपने देश की वर्तमान उथलपुथल को देखा तो  दोनों में काफी साम्य दिखाई दिया. (आज यह अधिक स्पष्ट होता जा रहा है ) ऐसा ही तो चिली में अमेरिका ने किया था. दरअसल यहीं से अर्थसत्ता के सूत्र खुले और या निश्चय किया गया कि पूँजी के आवारा और विध्वंसक का चरित्र चित्रण किया जाना चाहिए. और यह भी की राज्यसत्ता और अर्थसत्ता पिछले पांच सौ सालों से एकमेक होकर सामान्य जानो पर कैसे सवारी गाँठती आई हैं और इसका तोड़ जो भी बनाना या बनना चाहता है वो खुद तोड़ दिया जाता है या टूट जाता है. सोवियत रूस  के बनाने और टूटने को को भी आप इसका एक उदहारण भर ही समझें .. 1917 की क्रांति को भी आंशिक रूप से  अमेरिकी पूँजी ने भी प्रायोजित किया था…. जिसके दस्तावेजी सबूत भी मौजूद है.. खैर अर्थसत्ता की पोस्ट्स लिखी गयीं, जिन्होंने पढ़ा, पसंद किया, और जिन्होंने नहीं पढ़ा उन्होंने उसमे मोदी विरोध सूंघ कर उसे रिपोर्ट कर  फेसबुक ID ब्लाक करवाई. अब इस ब्लॉग पर फिर वही कहानी और अधिक विस्तार  से पढ़िए , थोडा कीजिये फिर और गहरे उतरते हैं फिलहाल ये थी अर्थसत्ता की पहली पोस्ट — 
“कल शशिभूषण जी ने ठीक कहा कि जो अपना इतिहास नहीं पढ़ते वे चिली का क्या पढ़ेंगे। मुझे भी इस मूर्खों और धूर्तों की टुकड़ी से कोई उम्मीद नहीं है। जो इनके पहले थे उनसे भी नहीं थी, क्योंकि वे तो अर्थशास्त्र के पंडित थे। ट्रेकिल डाउन और जाने कौन कौन से पोंगा सिद्धांत बघारते थे और फ्री इकॉनमी को वरदान मानते थे कि जैसे यही अब हर हिन्दुस्तानी की जिंदगी को जगमग कर देगी।
पर हमारे हुक्मरान कभी भी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक दबावों के आगे घुटने टेकने के अलावा कोई विकल्प नहीं पेश कर सके। यह उनके बस की बात ही नहीं थी। दरअसल फ्री मार्किट के एजेंट 1975 के पहले ही भारत घुसपैठ कर चुके थे और वे विभिन्न स्तरों पर लॉबीइंग करके या सीधे हस्तक्षेप द्वारा सरकारी निर्णयों को प्रभावित कर रहे थे। याद रखिये कि यही वह जमाना था जब अमेरिका में भी इकनोमिक डेरेगुलशन शुरू हुआ और वहां का अर्थतंत्र पूंजीवाद के सबसे खतरनाक दौर में प्रवेश कर गया, और उत्पादन, निर्माण और विपणन का नियंत्रण परोक्ष रूप से मेन स्ट्रीट से छीनकर वाल स्ट्रीट ने हथिया लिया था ।
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अब चिली की बात पर आते हैं और ये देखते हैं की वह क्यों हमारे लिए आज प्रासंगिक है।
1950 -60 में चिली ठीक ठाक तरक्की पर था बिना किसी बाहरी मदद के। शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ राष्ट्र निर्माण के प्रमुख उद्योग पूरी तरह राज्य के नियंत्रण में थे। (बताना जरुरी है कि चिली १८१० में आजाद हुआ और स्वशासन के दो प्रमुख काल खण्डों से गुजरते हुए उसने 1891 से ही संसदीय प्रणाली अपना ली थी और 1925 से Arturo Alessandri Palma. के सुधारवादी नेतृत्व में मजबूत हो रहा था) वहाँ के मजबूत होते कामकाजी मध्यवर्ग को “ईवोलूशन टू अवॉयड रेवोलुशन” के नारे के तहत संगठित किया जा रहा था। एक ऐसे दौर में, जब उसके पडोसी दक्षिण अमेरिकी देश भी उससे रश्क करने लगे थे; वहां पांव जमाये अमेरिकी कंपनियों को अपने लिए खतरा महसूस होना  शुरू हो गया।
इसके पहले ही अमेरिका में 1929 की भयानक मंदी को मार भागने के लिए रूज़वेल्ट द्वारा “न्यू डील” की घोषणा की जा चुकी थी और अमेरिकी सरकार बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मुहैय्या कराने का बीड़ा न केवल उठा चुकी थी बल्कि करा भी रही थी। इसी वजह से अमेरिकी पूंजीपति और उनके पिछलगुए अर्थशास्त्री भी कनमना रहे थे, जिनमें सबसे प्रमुख थे शिकागो यूनिवर्सिटी के मिल्टन फ्रीडमैन। उन्होंने पूंजीपतियों के हक़ के लिए “न्यू डील” का युद्धस्तर पर विरोध शुरू कर दिया।
इसके कुछ पहले यूरोपीय/अमरीकी पूंजीपतियों के पिछलगुए अर्थशस्त्रियों द्वारा एक संगठन की स्थापना भी हो चुकी थी जिसका नाम था –“मोंट पेलेरें सोसाइटी”; इसका एकमात्र उद्देश्य था –समस्त व्यापारिक और औद्योगिक उपक्रमों से सरकारी नियंत्रण हटवाना। फ्रीडमन उसका सक्रिय सदस्य था और ऑस्ट्रिया का अर्थशास्त्री फ्रेडरिक वोन हायक अध्यक्ष। इस सोसाइटी ने एक पोंगा सिद्धांत निकाला और उसे न केवल प्रचारित किया बल्कि संगठित रूप से लागू करने के लिए दुनिया की सभी सरकारों पर परोक्ष दबाव बनाने की भी शुरुआत की। कहना न होगा कि इसके पीछे दुनिया के सभी प्रमुख पूँजीपतियों ने समर्थन और धन लगाया।
यह पोंगा सिद्धांत था कि “यदि सरकारें अर्थतंत्र से अपना समस्त नियंत्रण हटा कर उसे पूरी तरह मुक्त कर दें तो अर्थ व्यवस्था स्वयं ही अपने को सन्तुलित करती रहेगी “. … इसके बाद ही मुक्त बाजार और मुक्त अर्थव्यवस्था के खेल की शुरुआत हुयी . ….1950 के शुरूआती विरोध के बाद सभी अमेरिकी अयोग्य सरकारों को यह सिद्धांत तुरंत भा गया और दूसरों ने भी इसमें अपनी मुक्ति देखनी शुरू की।

अब पुनः चिली पर आते हैं—- तो चिली के आत्मनिर्भर बनते चले जाने और सरकार द्वारा पोषित उपक्रमों के पुष्ट होते जाने के दौरान वहां पांव पसारे पूंजीपतियों को अपनी तरक्की में बाधा महसूस हुयी और उन्होंने अपने एजेंट मिल्टन फ्रीडमन को सक्रिय किया। फ्रीडमन ने अमेरिकी सरकार के साथ मिलकर अपने लम्बे और सुनियोजित प्लान के तहत चिली की कैथोलिक यूनिवर्सिटी से मेधावी छात्रों को जहाज भर-भर कर  मुक्त बाजार की शिक्षा के लिए शिकागो यूनिवर्सिटी बुलाना शुरू किया । सालों तक चले इस उपक्रम के बाद सैकड़ों की संख्या में मुक्त बाजार के पैरोकार तैयार होकर चिली पहुचने लगे और वहां के सरकारी, अर्धसरकारी और निजी संस्थानो में अपनी जगह बनाने लगे।
यही नहीं कैथोलिक यूनिवर्सिटी का अर्थशास्त्र विभाग पूरी तरह से शिकागो यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग का क्लोन बन गया और इसके मुखिया अर्नाल्ड हरबेर्गेर बन गए फ्रीडमन के भक्त ।
इसका नतीजा सत्तर के दशक की शुरुआत से सामने आया जब नयी चुनी गयी सरकार (राष्ट्रपति: साल्वाडोर अलेंदे गोसेंस) को गिराने का प्रयास अमेरिका द्वारा किया जाने लगा। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने सीआईए को चिली में आर्थिक अस्थिरता पैदा करने का साफ़ निर्देश दे दिया। इसका एक मात्र कारण था नयी सरकार द्वारा अमेरिकी पूंजी द्वारा संचालित उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण करने का प्रयास (क्योंकि जाहिर है,  इससे अमेरिकी पूँजी  की पकड़ चिली के पर कमजोर होती या ख़त्म होती)।
उस समय चिली के टेलीकॉम , बैंकिंग, माइनिंग आदि सभी प्रमुख क्षेत्रों का या तो राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था या उनमें सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाया जा रहा था जिसके फलस्वरूप नयी सरकार के कार्यकाल के पहले साल में अच्छी आर्थिक प्रगति भी हुई थी.
इधर अमेरिका के सरकारी पैसे, सीआईए और चिली की कैथोलिक यूनिवर्सिटी के मुक्त बाजार सेवक-शावकों द्वारा एक ५०० पेज का ब्लू प्रिंट तैयार किया गया जिसका नाम था -“ब्रेक “। इसके तहत बड़े पैमाने पर हड़ताल कराना, आम लोगों में भय पैदा करके उन्हें बैंकों से जमा पूँजी निकालने की उकसाना आदि के माध्यम से अस्थिरता/अशांति पैदा की गयी और असफल तख्तपालट की एक कोशिश हुयी। अमेरिकी पूंजीपतियों ने भी अपने पैसे बाजार से निकाल कर कृत्रिम आर्थिक संकट पैदा किया गया जिससे मुद्रास्फीति पहले 140% और फिर 800% तक पहुंच गयी।
जिस चिली ने 40 साल शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक शासन के बिताये थे उसकी गलियों में मिलिटरी की संगीनें लहराने लगी और इसकी चरम परिणति राष्ट्रपति भवन पर सीधे हमले द्वारा साल्वाडोर अलेंदे गोसेंस की सरकार को उखाड़ फेंकने में हुयी।
आज भारत में वही अभियान सक्रिय है, बेशर्म समझौतों द्वारा कुशिक्षित राजनेताओं को फुसलाया जा रहा है या तो धमकाया जा रहा है; चिली में तो शिक्षा को प्रायोजित किया गया था, भारत में तो अब सीधे हस्तक्षेप कर खरीदा जा रहा है। हमारे कुशासक पहले इसे अपरिहार्य बता रहे थे और आज निहाल हुए जा रहे हैं और हाथ उठा-उठा कर मेक इन इंडिया कर रहे हैं।
ठीक भी है, वायरस पहले ठीक दिमाग में घुसाओ, इंसान को पागल करो बाकी  बीमारियां वो अपने आप पैदा कर लेगा। धर्म को भ्रष्ट करना है, पंथ चलाना है तो पहले अपने पुरोहित पैदा करो …….
एक बच्चे ही हैं  जो इस बात को समझ रहे है और विरोध में जान की बाजी लगा रहे हैं, लाठियां खा रहे है।
हुक्मरान कुशिक्षित हैं, मूर्ख हैं, बिके हुए हैं, बेहया हैं या यह सब होने के साथ क्रूर भी हैं……फिलहाल इस देश के पक्ष में नहीं हैं। ..और अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों को उतना भी नहीं जानते मानते जितना गली का एक व्यापारी अपनी सहज बुद्धि से ही जनता है।

इस बात को शायद छात्र समझ रहे है। थोड़ी बहुत उम्मीद भी उन्ही से है।

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