Saturday, December 10, 2016

मोंट पेलेरें के रोबोट्स और मुक्त बाजार

जुगाड़ जबरदस्त है, और गठजोड़ अटूट। दुनिया के हर देश के कोने-कोने  में फ़ैल गए हैं मोंट पेलेरिन के रोबोट्स। इनके लिए कोई टर्मिनेटर नहीं बना अब तक।वास्तव में ये ऐसे वायरस हैं जो सिस्टम के बाहर तो निष्क्रिय रहते हैं लेकिन, भीतर प्रवेश करते ही उसे अपनी गिरफ्त में लेकर पंगु बना देते हैं।
1947 में स्विट्ज़रलैंड के मोंट पेलेरिन में ऑस्ट्रिया के अर्थशास्त्री फ्रेडेरिक वोन हायक के बुलावे पर करीब 35 शीर्ष बुद्धिजीवी इकठ्ठा हुए यह सम्मेलन विश्व के नामी पूंजीपतियों ने प्रायोजित किया था जिसका मकसद था--उद्योग और व्यापार की बढ़ोत्तरी के लिए दुनिया में अधिक सुविधाजनक (conducive) माहौल बनाने के लिए प्रस्ताव तैयार करना। सम्मेलन की समाप्ति पर  इन बुद्धिजीवियों ने, जिनमें अधिकाँश जाने-माने अर्थशास्त्री थे एक सर्वथा नया सिद्धांत गढ़ा और उसके आधार पर दुनिया की आर्थिक संरचना को एक नयी दिशा देने हेतु एक प्रस्ताव तैयार  किया   



इस प्रस्ताव का  सार तत्त्व यह था कि सरकारों को देश की समस्त आर्थिक गतिविधियों पर से अपना नियंत्रण हटा कर बाजार को स्वतंत्र कर देना चाहिए. उनके अभिनव सिद्धांत के अनुसार अपनी स्वाभाव गत विशिष्टता और अन्तर्निहित ताकतों के बूते बाजार स्वचालित और स्वनियंत्रित होता रहेगा और बहते पानी की तरह अपनी सतह का नियमन खुद कर लेगा। इसमें अमरीका के शिकागो विश्वविद्यालय का मिलटन फ्रीडमन भी था, जो बाद में मुक्त बाजार का सबसे बड़ा पैरोकार बना। बाकियों की चर्चा इसलिए करना जरुरी नहीं है क्योंकि बाद में होने वाली बाजारी उथल-पुथल में उनका कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा।

अब थोडा हटकर मुक्ति, आजादी या स्वतंत्रता के विचार पर ध्यान देते हैं। समझने की बात है कि एक तो विशुद्ध स्वतंत्रता (absolute freedom) जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती, क्योंकि स्वतंत्रता तो सदैव सापेक्ष होती है. एक और बात यह है कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के साथ उसे कायम रखने के लिए स्वतंत्र हुए व्यक्ति या समाज को सतत संघर्षरत  भी रहना होता है और उसके लिए कुछ जिम्मेदारियां भी निभानी होती हैं, अन्यथा जिससे लड़ कर आपने स्वतंत्रता हासिल की है वे शक्तियां पुनः सक्रिय होकर आपसे स्वतंत्रता छीन भी सकती हैं। इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता पर आपका हक़ तभी तक बनता है जब तक आपमें उसकी सीमाओं को समझने की योग्यता और उनकी रक्षा की सामर्थ्य कायम है। मोंट पेलेरिन के सम्मलेन में बाजार की जिस मुक्ति (फिर चाहे स्वतंत्रता कह लीजिये) की वकालत की गयी थी उसका एक ही मतलब था--मनचाहा करने की खुली छूट, जो कि स्वतंत्रता के स्थापित, स्वीकृत और व्यवहारिक सिद्धांत का केवल एक पक्ष है।

अब एक तीसरी बात। सोचना यह है कि वुद्धिजीवी आखिर होते कौन हैं और हमरे लिए करते क्या हैं?  देखा जाय तो बुद्धिजीवी वर्ग ड्रिल मशीन के आगे लगी  टूल बिट जैसा होता है, लेकिन ड्रिल मशीन छेद तभी बना सकती है जब उस पर पीछे से ताकत लगाई जाये। इसके अतिरिक्त बुद्धिजीवी अपने समय के सामाजिक मूल्यों का चौकीदार भी होता है और कभी कभी नया मूल्यों को गढ़ने का वायस भी। बाद में वे मूल्य व्यवहार की कसौटी पर कसे जाते हैं और खरे उतरे तो जीवित रहते हैं, अन्यथा  समाज द्वारा नकार दिए जाते हैं। इस हिसाब से मोंट पेलेरिन में एकत्र ये बौद्धिक लोग वास्तव में बाजार के लिए एक नया मूल्य ही तो गढ़ रहे थे फिर इनकी आलोचना क्यों?--- यह आगे स्पष्ट हो जायेगा।

मोंट पेलेरिन के इस विचार को उसके सदस्यों ने यथासंभव अपने अपने संस्थानों और संपर्कों के माध्यम से प्रचारित करना शुरू किया। मुनाफाखोर वर्ग को यह विचार खूब भाया और उन्होंने इसके लिए हर संभव सहयोग देना शुरू कर दिया। यही नहीं इसकी इतनी मजबूत लॉबिंग की गयी कि अमेरिका में रूज़वेल्ट की "न्यू डील" वाले सिद्धांत को अमेरिका की ही तरक्की में बाधा माना जाने लगा। मिल्टन फ्रीडमन ने इस  विचार से शिकागो विश्वविद्यालय के अपने छात्रों को पोषित किया और पूंजीपतियों ने अपने गुर्गों को अमरीकी कांग्रेस से लेकर सीनेट तक फैलाया। शिकागो यूनिवर्सिटी का अर्थशास्त्र विभाग मिल्टन फ्रीडमन के नेतृत्व में तो पहले से ही न्यू  डील के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए था। हालाँकि  शुरू में उसका चौतरफा  विरोध हुआ लेकिन वह एक ऐसा ड्रिल टूल बिट था जिसके पीछे अमेरिका और यूरोप की संगठित पूँजी की ताकत काम कर रही थी. मेरा मानना है कि  अब मुनाफाखोरों और मुक्त बाजार के पैरोकार अर्थशास्त्रियों के इस गठजोड़ को समझने के लिए कोई विशेष योग्यता नहीं चाहिए।

अगले लेख में यह बताया जायेगा कि किस तरह शिकागो यूनिवेर्सिटी ने चिली के छात्रों को भारी संख्या में मुक्त बाजार की शिक्षा के लिए प्रयोजित किया और बहुत कम समय में चिली की चुनी हुयी सरकार का तख्ता पलट करके पहले वहां आराजकता और फिर बाजार का साम्राज्य कायम किया।

उधर यूरोप में 
फ्रेडेरिक वोन हायक सक्रिय तो था लेकिन (मिल्टन फ्रीडमन का गुरु होने के बावजूद) ऑस्ट्रिया जैसे छोटे देश का होने के कारण वह कोई कमाल नहीं दिखा पाया क्योंकि उसके पीछे इतनी बड़ी संगठित पूँजी नहीं थी। यूरोप के पूंजीपति भी उस समय मिल्टन फ्रीडमन के माध्यम से अमेरिका में ही अधिक रूचि दिखा रहे थे क्योंकि वहां केवल एक सरकार को प्रभावित कर वे बड़ा लक्ष्य हासिल कर सकते थे। फ्रेडेरिक वोन हायक ने अपना कमाल इंग्लैंड में दिखाया जब अमेरिका में यह मिशन पूरा हो चुका था और इग्लैंड में मार्गेट थैचर गद्दी पर बिठायी जा चुकी थी।

सबको पता है कि उसके बाद थैचर और रोनाल्ड रीगन ने मिलकर दुनिया में युद्ध और आर्थिक विध्वंस का कैसा बेशर्म तांडव किया। उसी दौरान थैचर ने इंग्लैंड की सभी सरकारी कंपनियों का विनिवेश करके उन्हें कार्पोरेट्स को सौंप दिया। संगठित आर्थिक विध्वंस की कहानियां हम बाद के लेखों में विस्तार से बताते रहेंगे, या कभी बीच में क्षेपक के रूप जोड़ते रहेंगे; फिलहाल अभी इस बात पर ध्यान देते हैं किस तरह मोंट पेलेरें सोसाइटी और शिकागो के सनकी फ्रीडमनआपस में  मिलकर एक  त्रुटिपूर्ण  पोंगा सिद्धांत की नशीली चाट दुनिया को खिलाते हुए, शोषक पूँजी के साथ मिल कर आधी दुनिया के आर्थिक आधार को अपने कब्जे में कर सके और अब भारतीय उपमहाद्वीप को शिकार के रूप में निशाने पर ले चुके हैं।

पिछले पांच दशक में मोंट पेलेरिन की स्थापनाओं के अनुरूप शिक्षा पाये हुए और उन सिद्धांतों को आत्मसात किये लाखों नौजवान मुक्त बाजार के संवाहक बनकर दुनिया के हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुके है, और वहां वे अपने आकाओं के लक्ष्य को पूरा करने में मदद कर रहे हैं। इनकी कार्य शैली देशकाल और परिस्थिति के अनुसार मामूली बदलाव लिए हुए किन्तु मूल रूप में चिली में किये गए सफल प्रयोगों के अनुरूप ही है, जिसके जीवित उदहारण इंग्लॅण्ड, सोवियत रूस, अफ़ग़ानिस्तान , ईराक़ में हुयी और अब सीरिया में हो रही घटनाओं में देखे जा सकते हैं।

इन रोबोट्स का पहला हमला शिक्षा के तंत्र होता है, जिसे ये अनुपलब्ध , मंहगी अथवा निष्प्रभावी बनाकर अपने क्लोन तैयार करते है। इस प्रकार तैयार क्लोन्स में देखिये किस तरह नाना प्रकार के फीचर्स वाले रोबोटिक ग्रुप्स बन जाते हैं.:

  1.  उच्च शिक्षित पूँजी की हुकूमत समर्थक प्रशासक और प्रबंधक
  2. अर्धशिक्षित मातिभ्रम कारिंदे
  3. किराये हेतु खाली संचार माध्यम और बुद्धिजीवी
  4. अपनी वास्तविक क्षमता से अधिक महत्वकांक्षी मध्यवर्ग
  5. उदारता पूर्वक कर्ज लुटाते बैंकर 
  6. जाहिल धर्मांध
  7. आरोप-प्रत्यारोप के माध्यम से सार्थक विमर्श को भटकने वाले छुटभैये नेता और प्रवक्ता

ये सभी अपनी-अपनी तरह से एक दूसरे को संवर्धित करते हुए अंत में मोंट पेलेरिन के स्थापित मूल्यों के ही पोषक बन जाते हैं। सत्ता परिवर्तन चाहे हिंसक तख्तापलट द्वारा कठपुतली शासक बनाकर हो या लोकतांत्रिक चुनाव द्वारा भारी बहुमत से ----इनका मकसद केवल मनमाना निर्णय ले सकने वाली सरकार के मौजूद होने से पूरा हो जाता है। उसके बाद ये नई सरकार का दृष्टि-बंध कर सिस्टम में मौजूद अपने क्लोन्स के सहारे सरकारी आर्थिक तंत्र को कमजोर करते हुए देश की निर्भरता कार्पोरेट पूँजी पर बढ़वाने लगते हैं।

मुनाफा कमाना एक राष्ट्रीय नैतिकता बन जाती है और राज्य द्वारा किये जा रहे सभी कल्याणकारी कार्य धीरे धीरे ठप किये जाने लगते हैं।

मोंट पेलेरिन के रोबोट्स देश के सभी अंगो उपांगों से प्रवेश करते हुए बाद में रीढ़ पर हमला करते है और देश की मुख्य आर्थिक धारा (भारत सन्दर्भ में कृषि) को निर्जीव करने लगते हैं।


क्या ये लक्षण हमें अपने देश में नहीं दिख रहे ? क्या हम रोबोट्स के सक्रिय होने की मशीनी आवाज नहीं सुन पा रहे ? या फिर इसी को हम विकास समझ बैठे हैं? दर्दनाक बात यह है कि हम भारतीय सही जानकारी और दृष्टि कोण के आभाव में पूरी तरह से बम-बम हैं और हमें लगता है कि दुनिया हमारे क़दमों में होगी; जब कि जो होगा उसकी कल्पना से ही सिहरन होने लगती है।


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