Thursday, February 23, 2017

बम बम भोले !

शिव ने पार्वती से पूछा- "प्रिये ये मुझको सात पुश्तों का राशन भक्त आज ही क्यों सप्लाई करने पर तुले हैं ?
पार्वती ने शंका निवारण किया- “मनुष्य आपको अर्जेंटली सेट करना चाहता है देव! इन सबके पास अपना कोई न कोई “कारज” है जो कि हमेशा बिगड़ा हुआ रहता है, उसे ये आपसे ठीक करना चाहते हैं. संक्षेप में ये आपको “कारज” का मेकेनिक मानते हैं.
लेकिन पार्वती मैंने ये क्षमताएं प्राप्त करने के लिए वर्षों तक बहुत साधना की है ...मनुष्य लोग मुझसे ये क्यों नहीं सीखते?
उनके पास टाइम नहीं है देव! बिजी लोग हैं, व्यापारी हैं मुनाफा समझते हैं, आपकी तरह फालतू नहीं हैं कि सीखने समझने में लगे रहे..... और आप भी जब पाव भर धतूरे में मान जाते हो तो कोई क्यों ज्यादा इन्वेस्ट करे.
अरे मानता कहाँ हूँ प्रिये ! वही धतूरा वापस कर देता हूँ सबको, देखती नहीं सब के सब वही तो खाए बौराए पड़े हैं.... मुझसे नजरें हटा कर जरा भारत भूमि को देखो तो !

Monday, February 13, 2017

जय वैलेंटाइन !

 अपने महान देश के किसी संत, किसी ऋषि मुनि का नाम बताएं जो स्त्री पुरुष के स्वाभाविक और लौकिक प्रेम के पक्ष में खड़ा हो, और इसके लिए राजा तक से पंगा लिया हो, और सजा भी क़ुबूल की हो. हमारे यहाँ तो राजा के यहाँ जाकर दान मांगने, यज्ञ करने, खुश होकर वरदान देने या फिर मनमुताबिक काम न होते देख श्राप देने का फैशन रहा है और स्त्री पुरुष के सहज प्रेम की कॉल को सीधे ईश्वर की तरफ डाइवर्ट करने का भी. फिर चाहे आपकी कॉल रिसीव हो या न हो. कोई जवाब न मिले तो समझो आपके नेटवर्क में ही खराबी है.
में कहानियों में भटकाने का काम ज्यादा किया गया है. आज भी हमें राधा-कृष्ण, मीरा जैसे आदर्श उदाहरण देकर यही बताया जाता है कि हम वास्तव में तुच्छ हैं और प्रेम को लेकर हमारी सामान्य धारणाएं और अनुभव भी. हमें उन आदर्शों की तरफ लपकने को उकसाया जाता है जिन्हें हम उम्र भी गुजार दें तो नहीं पा सकते, जैसे हमें उकसाने वाले भी उन्हें नहीं पा सके और आखिर में छिपे कैमरों या फिर भारतीय दंड संहिता की गिरफ्त में आ गए.
लन्तरानियों को दर्शन और दर्शन को लंतरानी की तरह पेश करके, महान कहलाये जाने वाले लोग हमारी दिमागी मालिश इस तरह करते रहे हैं कि हम अपने तुच्छता बोध से कभी उबर ही न सकें और अपनी जिंदगी प्रार्थना करने, दया या कृपा मांगने और जय बोलने में खपाते रहें. अब ऐसा मनुष्य जिसे जन्म से ही दीनता और लघुता के ही पम्प से फुलाया गया हो और बड़ा होते ही जीने खाने के लिए प्रतिस्पर्धा के मैदान में ठेल दिया गया हो, प्रेम जैसे अद्भुत अनुभव को कैसे प्राप्त कर सकता है. वह तो नकली कवितायेँ लिखेगा या दूसरों की प्रसंशा के भजन गायेगा.
ईश्वर से प्रेम का बाजार बहुत बड़ा है, ईश्वर से प्रेम करना आसान भी है क्योंकि एक तो आपने उसको देखा नहीं और और दूसरे उससे आपको कोई काम नहीं पडा, कभी कोई लेन-देन नहीं हुआ. अपने पड़ोसी से प्रेम करना मुश्किल है क्योकि उसकी बेहतर जिंदगी आपको मुंह चिढाती है और बदतर जिंदगी कमीनेपन से सनी हुयी अद्भुत ख़ुशी देती है, और ये दोनों अनुभव सीधे-सादे प्रेम से कहीं बेहतर क्वालिटी के होते हैं, लगभग परमानन्द के करीब.
अभी एक और चक्कर है. “असली वाला प्रेम शरीर से नहीं मन होता है, वही अलौकिक है, वही सत्य है, स्थायी है, शरीर से तो केवल वासना की अभिव्यक्ति होती है”---जैसा पुराण बांचते बांचते हम दिन रात भ्रम के महासमुद्र में गोते लगाते रहते हैं और शरीर की नश्वरता से प्रेम को नश्वरता को जोड़ते घटाते अपनी जिंदगी हलाकान किये रहते हैं. इससे बचने का एक मात्र उपाय यही है कि तत्काल शरीर त्याग कर, आत्मा की अवस्था प्राप्त कर ली जाए. पर मेरे जैसे आदमी के लिए न तो यह अभीष्ट है और न संभव क्योंकि आत्मा जैसी भी हो इस शरीर की ही किरायेदार है. अगर शुद्ध आत्मिक प्रेम भी कभी कुलबुलाये तो उसकी अभिव्यक्ति शरीर के बिना कम से कम मैं तो नही कर सकता, अपनी आप जानें.
संत वैलेंटाइन को याद करने और उनकी याद में प्रेमोत्सव मनाने में मुझे सार्थकता लगती है क्योंकि वे ऐसे संत लगते हैं जो शतप्रतिशत मनुष्य थे और मनुष्य की सहज इच्छाओं का सम्मान करने के लिए अपने जमाने के राजा के विरुद्ध जाने का साहस कर दिखाया, उन्हें जंगल में बुलाकर उपदेश नहीं पिलाया.
बाकी रही बाजार की बात, तो बाजार हर उस चीज को गोद लेने के लिए लपकता है जिसकी स्वीकार्यता लोगों में बढती दिखती है, और यह पूरी तरह आपकी मर्जी है की आप उसकी गोद में बैठें या न बैठें.

Saturday, February 11, 2017

प्यार में बाजार

चारों तरफ प्रेम का परनाला बह रह रहा हैं---सोशल मीडिया में, रेडियो-टेलीविजन में, अखबारों में. युवाओं को फ़िल्मी गानों के माध्यम से प्रेम करने के लिए उकसाया जा रहा है, जिससे कहीं वे इस पचड़े में पड़े बिना ही 14 फरवरी न निकाल दें.
इस सबका वास्तव में वाजिब असर भी हुआ है, और इतना हुआ है कि वे अब जाग गए हैं और लगता है कि प्रेम करके ही मानेंगे और वह भी पूरे विधिविधान से. जो नौजवान अभी भी इस हल्ले में नहीं आ पा रहे हैं वे दूसरी तरफ जाकर “सस्कृति” नामक भैंस दुहने में लग गए हैं. वे इस बात से भी रुष्ट हैं कि बाजार उनके प्रतीकों जैसे लाठी, त्रिशूल और परदे को वैलेंटाइन वीक के आयोजनों में सही जगह नहीं देता. इसलिए वे प्रेमियों के साथ वही सुलूक करने में लग जाते हैं जो आज के लगभग १८०० साल पहले सेंट वैलेंटाइन के साथ तत्कालीन रोमन सम्राट ने किया था--यानी पिटाई.
बाजार की मार्फ़त ही पता चला है कि प्रेम करना और उसे जाहिर करना खासा खर्चे वाला काम है और यह सात दिन में स्टेप-बाई-स्टेप ही किया जा सकता है. गुलाब, चॉकलेट, टेडी और अन्य उपहारों के जोर से आप प्रस्ताव को गौर करने लायक बनाते हैं और फिर स्वीकृत हो जाने पर ‘हग’ या ‘किस’ करते हैं तब कहीं जाकर मामला जमता है, और प्रेम, जो अब तक शायद कहीं अटका हुआ था, अचानक हो बैठता है और बात आगे बढती है. अगर ये सब आपकी हैसियत के बाहर बैठता है तो आप और चाहे जो कर सकते हों, प्रेम तो बिलकुल नहीं कर सकते.
मगर इतना कर सकने की हैसियत के साथ आप चाहें तो “मेरी जां, जाने जिगर, इकरार, बेकरार, प्यार, यार, दिलदार, बहार, चन्ना जैसे बीस तीस शब्द जो बार-बार अलग अलग फ़िल्मी गानों में आकर आपको बचपन से परेशान करते रहे हैं उनको आपस में लपेट कर, कुछ कविता या शायरी टाइप के एक नये टॉप-अप वाउचर से अपने प्रेम की रिचार्ज वैल्यू बढ़ा सकते हैं.
यकीन न हो तो अपने यार/दिलदार से प्यार और पैसा में से किसी एक को चुनने को कहिये तो वह निश्चित रूप से आपको ही छोड़ देगा/देगी क्योंकि प्यार और पैसा आपस में कुछ इस तरह गुत्थम गुत्था हैं कि समझ में नहीं आता कि भला उनमें कुश्ती हो रही है या प्यार. हालाँकि दोनों में ख़ास फर्क भी नहीं है.
और ऐसा क्यों न हो? आखिर इसी काम के लिए और इसी मौसम में, अमेरिका में २० अरब डॉलर और इंग्लॅण्ड में डेढ़ अरब पौंड और इससे कुछ ही कम फ़्रांस में प्रेमी जन हर साल फरवरी में खर्च करते हैं तो हम क्यों पीछे रह जाएँ ?
वैसे बड़े धीरज का काम है कि अगर आप को प्यार हो जाए और आप उसके इजहार के लिए फरवरी का इंतज़ार करें... कम से कम ये मुझ जैसे नकारा आदमी के बस की बात तो नहीं.