Friday, January 27, 2017

मुक्त बाजार से मुक्ति--3: उनका पिरामिड उलट दीजिये

दुनिया भर के समाजशास्त्रीय और अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों को धूल चटा जाईये और सिर्फ यह सोचिये कि आप अपने लिए कैसी जिंदगी चाहते हैं और अपने लिए कैसी दुनिया ? करेंसी और बैंकिंग के जिस स्कैम ने आज हमें और आपको घेर रखा है और हमारी जिंदगियों को सुविधा पूर्ण बनाने के नाम पर वह हमारी साँसों तक को जिस तरह डिक्टेट कर रहा है, क्या वह आपको पसंद आ रहा है ? क्या आप स्वतंत्र हैं ? अपनी मर्जी की जी पा रहे हैं या फिर दिन रात मेहनत करके, बदले में मिली करेंसी से अपनी जरूरत और विलासिता के लिए चीजें जुटाने वाली एक मशीन बन चुके हैं ? असलियत यह है कि आप और हम उनके बनाये हुए सिस्टम में फिट होकर उत्पादन और उपभोग के चक्करदार क्रम में निरंतर घिसते हुए पुर्जे से ज्यादा हैसियत नहीं रखते !
मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैसलो ने मनुष्य की जरूरतों का एक पिरामिड बनाया और हमें बताया कि पिरामिड में नीचे से शुरू करके ऊपर की ओर जाते हुए एक एक करके मनुष्य की जरूरतें पूरी होंने पर ही मनुष्य पूर्णता को प्राप्त होता है और उसे उच्च मानवीय मूल्यों के दर्शन होते हैं. चित्र में दिए पिरामिड को ध्यान से देखिये आप खुद-ब-खुद समझ जायेंगे. मोटे तौर पर मैस्लोवेँयन पिरामिड ऑफ़ नीड्स के अनुसार यदि आपकी शारीरिक जरूरतें जैसे--सांस, भोजन, सेक्स और सुरक्षा--नहीं पूरी हुयी हैं तो आप जीवन में उच्च्चतर मूल्यों जैसे प्यार, आत्मसम्मान, ज्ञान और स्वतंत्रता की सोच भी नहीं सकते !
अब जरा सोचिये अगर ऐसा ही होता तो अभाव और गरीबी में जीने वाला कोई भी कभी किसी उच्चतर अनुभव को प्राप्त ही नहीं हो सकता था. कबीर और रैदास तो होते ही नहीं, भारत ही क्या दुनिया के हर कोने से भयंकर गरीबी और संघर्ष झेलकर और उसी में पलकर, सैकड़ों साहित्यिक, अध्यात्मिक, वैज्ञानिक और खेल जगत की प्रतिभाओं ने जन्म लिया और उभरीं ही नहीं बल्कि अपनी अपनी जगह से अब्राहम मैसलो के इस सिद्धान्त को मुंह चिढा रही हैं....
लेकिन आज भी अमेरिका के पांच-पांच विश्वविद्यालयों में दंड पेल चुके मनोविज्ञान के इस प्रकांड पट्ठे की “Maslow's hierarchy of needs” बाकायदा दुनिया भर में रेफर की जाती है और छात्रों को पढाई जाती है.
अब यह ब्लॉग पोस्ट जिस बात से शुरू हुयी थी उसे इस सिद्धांत में मिलाते हुए इसकी बखिया उधेड़ेंगे और जरा समझेंगे कि इसे कैसे वे लोग अपने हक़ में इस्तेमाल करते हैं और फिर इसी को पकड़ कर हम दूसरे सिरे से कैसे अपने हक़ में इस्तेमाल कर सकते हैं ........वापस पाने के लिए अपना जीवन, अपनी स्वतंत्रता और ख़ुशी .......
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अब्राहम मैसलो का पिरामिड एक सिद्धांत हो या हायीपोथेसिस-- इसको कोई भी नाम दे लीजिये सिर्फ एक रेफेरेंस पॉइंट है, जिससे हम चीजों को समझना शुरू करते हैं और हमारे बाजारू शोषक हमें समझाना. कल की पोस्ट के कमेन्ट में सरफराज अनवर ने मैस्लोवियन पिरामिड को चुनौती देने वाले कबीर, रैदास आदि की सफलता को समझने के लिए, black swan phenomenon को समझने की सलाह दी.
दरअसल black swan phenomenon भी एक तरह का पोंगा सिद्धांत है जिसे स्टॉक ट्रेडर नसीम निकोलस तालिब ने 2008 की अमरीकन तबाही और उसके पीछे अमरीकी फाइनेंसियल सर्विस कंपनियों की धोखेबाजी को छिपाने के लिए गढ़ा. निकोलस ने रोबोटिक ट्रेडिंग के लिए कम्प्यूटर मॉडल बनाने में जिंदगी भर लगे रहे फिर भी न तो जिम्बावे के हाइपर इन्फ्लेशन और न ही 2008 के अमरीकी मेल्ट डाउन को ही समझ पाए थे इसलिए उन्होंने ये नयी थ्योरी पकड़ा दी. इसके अनुसार “black swan is an event or occurrence that deviates beyond what is normally expected of a situation and is extremely difficult to predict.” जब कि कोई भी घटना बिना कारण नहीं होती और न ही नियम का अपवाद होती है, उसके बीज सदा पिछली परिस्थितियों में छिपे होते हैं जिन्हें देखने समझने के लिए कम्प्यूटर की मशीनी इंटेलिजेंस नहीं मानवीय समझ की जरूरत पड़ती है.
फिलहाल मेरा मानना है कि सभी बेईमान और ईमानदार विद्वानों के सारे सिद्धांत जीवन से ही प्रतिपादित होते हैं और जीवन उनके आधार पर नहीं चलता. मनुष्य लगातार स्थापित सत्य को चनौती देता रहता है और नए सत्य की रचना करता रहता है.
अब मस्लोवियन पिरामिड को उलटने की बात करते हैं और उस प्रश्न से अपनी बात शुरू करते हैं जो कल की पोस्ट के आरम्भ में की गयी थी.
आप कैसा जीवन चाहते हैं और वैसा जीवन जीते हुए कैसी दुनिया आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ कर जाना चाहते हैं? कहीं आप अपनी आनंद और संतुष्टि की खोज में जीवन के मूलभूत अधारों को ही तो नहीं नष्ट कर रहे? पृथ्वी नामक ग्रह और उसके संसाधनों का, जिनका उपयोग करते हुए आप बन्दर से आदमी बन गए अभी भी बंदरों की तरह ही क्यों उपयोग कर रहे हैं? यह समय है टटोलने का कि कहीं एक अदद पूँछ अभी भी तो आपके पीछे नहीं चिपकी रह गयी, जो आपको हर चीज की अंधी नक़ल करने के लिए उकसा रही है ?
मैस्लोवेयन पिरामिड को उलटी तरफ से लागू करना शुरू कीजिये, सभ्यता का व्याकरण बदल जायेगा और जीवन का भी, हाँ लेकिन उसके पहले अपने पीछे चिपकी हुयी पूंछ हटानी होगी. अगली पोस्ट तक सोचिये कि कैसे हटायेंगे?
कबीर रैदास और दुनिया के हजारो साधारण लोग जो जीवन में ऊच्च्तर अनुभवों को जीते आये हैं उन्होंने ऐसा ही किया है और आज भी करते हैं.
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अगर जीवन का एकमात्र उद्देश्य मैटेरिअल कम्फर्ट यानि सुविधा भोग ही करना है तो आज औसतन पचास-साठ हजार महीना कमाने वाले जितनी सुविधा भोग पा रहे हैं, उतनी दो सौ साल पहले इंग्लॅण्ड के राजपरिवार को भी नसीब नहीं थी. जरा सोचिये कि तमाम भौतिक सुखों से लैस होने के बावजूद भी दुःख और खालीपन का रोना क्यों रोते हैं लोग? क्या जीवन स्तर (quality of life=the standard of health, comfort, and happiness) सिर्फ वस्तुओं और उपभोग से निर्धारित होता है? अगर ऐसा होता तो वातानुकूलित कमरे में नरम गद्दे पर लेटे हुए मनुष्य सर्वाधिक उल्लास का अनुभव कर सकता. लेकिन ऐसा होता नहीं है, तो जाहिर है कुछ अन्य तत्त्व भी हैं जो हमारे जीवन की सार्थकता और ख़ुशी के वाहक हैं.
जीवन में सार्थकता और ख़ुशी का अनुभव करवाने वाले तत्त्व हर व्यक्ति के लिए नितांत निजी और अलग-अलग होते हैं जो उस व्यक्ति के अपने जीवन की विकास यात्रा के हिसाब से स्वतः निर्धारित होते चलते हैं. आपने अपना जीवन किस मानसिक और भौतिक मुकाम से शुरू हुआ और आप उसे किधर लेकर चल रहे हैं, आपको होने वाले अच्छे बुरे अनुभव इसी पर निर्भर करेंगे.
सुख और दुःख का अनुभव जीवन में एकंतारिक है (एक के बाद ही दूसरे का आना) और अनिवार्य भी; ( अन्यथा एक के बिना दूसरे की पहचान भी कैसे होगी?) जो अपनी इस चक्रीय व्यवस्था से जीवन को समृद्ध निरंतर समृद्ध करता चलता है. अपने प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में स्वतंत्र, स्वस्थ्य, सौहार्दपूर्ण साहचर्य के साथ यह समृद्धि पाना और उसे बांटना ही जीवन का पूर्णकाम होना है.
स्वतंत्रता भी एक सापेक्ष स्थिति है. किसी व्यक्ति, कुनबे, कबीले या राज्य की स्वतंत्रता तभी तक कायम रह सकती है जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति, कुनबे, कबीले या राज्य की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करे. इसलिए अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए दूसरे की स्वतन्त्रता को बनाये और बचाए रखना भी उतना ही जरूरी है. प्रकृति से प्राप्त जीवन के साथ प्रकृति का सामंजस्य बनाये रखने की हमारी जिम्मेदारी भी इसी श्रेणी में आती है.
प्रकृति की स्वतंत्रता में जितना हस्तक्षेप मनुष्य करेगा, प्रकृति भी उसकी स्वतन्त्रता में उतना ही हस्तक्षेप करेगी और यह लड़ाई मनुष्य जीत नहीं सकता क्योंकि वह रचनाकार (creator) नहीं है मात्र अनुगामी है. ध्यान दीजिये हमारा हर आविष्कार आज भी किसी न किसी प्राकृतिक रचना से ही प्रेरित है और निरंतर विकसित होते विज्ञान ने अब तक सिर्फ प्राकृतिक घटनाओं को समझने का ही काम किया है; किसी नयी परिघटना को जन्म नहीं दिया.
इस संक्षिप्त और प्रवचन जैसे लगने वाले वक्तव्य को हजम करने के बाद ज़रा वर्तमान की ओर लौटिये और प्रकृति का ही एक उदहारण देखिये--
मधुमक्खी जिस फूल से रस लेती है उस फूल को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाती, उलटे फूलों के पराग की वाहक बनती है जिससे उस पौधे की संतति बढती है. वापस वह शहद बनाती है लेकिन अपनी निजी आवश्यकता से बहुत ज्यादा, इतना कि वह मनुष्य के लिए भी उपलब्ध होता है. संक्षेप में जितना वह प्रकृति से लेती है उससे अधिक देती है और साथ में प्रकृति का काम भी करती है. मनुष्य को मधुमक्खी से कुछ सीखना चाहिए.
तो वापस मैस्लोवेयन पिरामिड की तरफ आईये, उसे पकड़ कर उलट दीजिये और उस पर मधुमक्खी की तरह बैठ कर अपना छत्ता बुनिए, आपका जीवन अधिक ठंडा, मीठा और सुखदायी होगा.
हाँ लेकिन आज के समय में, इसके साथ ही आपको अपने चारों तरफ अपनी स्वतंत्रता के विरुद्ध चल रही साजिशों से सावधान रहना होगा, उसका प्रतिरोध भी करना होगा और जाहिर है इसमें कुछ collateral damage तो होगा ही.
अब इसके बाद विरोध की शैली और उसकी राजनीति की बात करेंगे नयी श्रंखला में

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