Monday, February 13, 2017

जय वैलेंटाइन !

 अपने महान देश के किसी संत, किसी ऋषि मुनि का नाम बताएं जो स्त्री पुरुष के स्वाभाविक और लौकिक प्रेम के पक्ष में खड़ा हो, और इसके लिए राजा तक से पंगा लिया हो, और सजा भी क़ुबूल की हो. हमारे यहाँ तो राजा के यहाँ जाकर दान मांगने, यज्ञ करने, खुश होकर वरदान देने या फिर मनमुताबिक काम न होते देख श्राप देने का फैशन रहा है और स्त्री पुरुष के सहज प्रेम की कॉल को सीधे ईश्वर की तरफ डाइवर्ट करने का भी. फिर चाहे आपकी कॉल रिसीव हो या न हो. कोई जवाब न मिले तो समझो आपके नेटवर्क में ही खराबी है.
में कहानियों में भटकाने का काम ज्यादा किया गया है. आज भी हमें राधा-कृष्ण, मीरा जैसे आदर्श उदाहरण देकर यही बताया जाता है कि हम वास्तव में तुच्छ हैं और प्रेम को लेकर हमारी सामान्य धारणाएं और अनुभव भी. हमें उन आदर्शों की तरफ लपकने को उकसाया जाता है जिन्हें हम उम्र भी गुजार दें तो नहीं पा सकते, जैसे हमें उकसाने वाले भी उन्हें नहीं पा सके और आखिर में छिपे कैमरों या फिर भारतीय दंड संहिता की गिरफ्त में आ गए.
लन्तरानियों को दर्शन और दर्शन को लंतरानी की तरह पेश करके, महान कहलाये जाने वाले लोग हमारी दिमागी मालिश इस तरह करते रहे हैं कि हम अपने तुच्छता बोध से कभी उबर ही न सकें और अपनी जिंदगी प्रार्थना करने, दया या कृपा मांगने और जय बोलने में खपाते रहें. अब ऐसा मनुष्य जिसे जन्म से ही दीनता और लघुता के ही पम्प से फुलाया गया हो और बड़ा होते ही जीने खाने के लिए प्रतिस्पर्धा के मैदान में ठेल दिया गया हो, प्रेम जैसे अद्भुत अनुभव को कैसे प्राप्त कर सकता है. वह तो नकली कवितायेँ लिखेगा या दूसरों की प्रसंशा के भजन गायेगा.
ईश्वर से प्रेम का बाजार बहुत बड़ा है, ईश्वर से प्रेम करना आसान भी है क्योंकि एक तो आपने उसको देखा नहीं और और दूसरे उससे आपको कोई काम नहीं पडा, कभी कोई लेन-देन नहीं हुआ. अपने पड़ोसी से प्रेम करना मुश्किल है क्योकि उसकी बेहतर जिंदगी आपको मुंह चिढाती है और बदतर जिंदगी कमीनेपन से सनी हुयी अद्भुत ख़ुशी देती है, और ये दोनों अनुभव सीधे-सादे प्रेम से कहीं बेहतर क्वालिटी के होते हैं, लगभग परमानन्द के करीब.
अभी एक और चक्कर है. “असली वाला प्रेम शरीर से नहीं मन होता है, वही अलौकिक है, वही सत्य है, स्थायी है, शरीर से तो केवल वासना की अभिव्यक्ति होती है”---जैसा पुराण बांचते बांचते हम दिन रात भ्रम के महासमुद्र में गोते लगाते रहते हैं और शरीर की नश्वरता से प्रेम को नश्वरता को जोड़ते घटाते अपनी जिंदगी हलाकान किये रहते हैं. इससे बचने का एक मात्र उपाय यही है कि तत्काल शरीर त्याग कर, आत्मा की अवस्था प्राप्त कर ली जाए. पर मेरे जैसे आदमी के लिए न तो यह अभीष्ट है और न संभव क्योंकि आत्मा जैसी भी हो इस शरीर की ही किरायेदार है. अगर शुद्ध आत्मिक प्रेम भी कभी कुलबुलाये तो उसकी अभिव्यक्ति शरीर के बिना कम से कम मैं तो नही कर सकता, अपनी आप जानें.
संत वैलेंटाइन को याद करने और उनकी याद में प्रेमोत्सव मनाने में मुझे सार्थकता लगती है क्योंकि वे ऐसे संत लगते हैं जो शतप्रतिशत मनुष्य थे और मनुष्य की सहज इच्छाओं का सम्मान करने के लिए अपने जमाने के राजा के विरुद्ध जाने का साहस कर दिखाया, उन्हें जंगल में बुलाकर उपदेश नहीं पिलाया.
बाकी रही बाजार की बात, तो बाजार हर उस चीज को गोद लेने के लिए लपकता है जिसकी स्वीकार्यता लोगों में बढती दिखती है, और यह पूरी तरह आपकी मर्जी है की आप उसकी गोद में बैठें या न बैठें.

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